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________________ अलिंगग्रहण प्रवचन ४ का बहुमान नहीं करेगा, कोई किसी का उपकार स्वीकार नहीं करेंगे और सब रूखे हो जायेंगे। परन्तु भाई ! कोई भी जीव पर का बहुमान नहीं करता है। धर्मी जीव अपने भाव में अपने स्वभाव का बहुमान करता है और स्वभाव में स्थिर नहीं हो सकता हो, तब शुभभाव में गुरु का बहुमान आ जाता है। केवली भगवान के इच्छा बिना वाणी निकलती है और छद्मस्थ जीव इच्छापूर्वक वाणी निकाल सकता है, यह बात भी मिथ्या है; क्योंकि वाणीरूप पर्याय का सर्व जीवों में तीनों काल अत्यंत अभाव है। (६) आत्मा में अलिंगग्राह्यपना है। आत्मा में रूप, रस, गंध आदि का अभाव होने से आत्मा किसी भी लिंग अर्थात् चिन्ह से पहिचानने योग्य नहीं है। शरीर में अमुक प्रकार के रंग से अमुक भगवान की पहचान हो, अमुक प्रकार की वाणी हो तो मुनि पहिचाने जायें, परम औदारिक शरीर हो तो केवली भगवान पहिचाने जायें, दिव्यध्वनि हो तो तीर्थंकर भगवान पहिचाने जा सकें । प्रश्न: क्या इन चिन्हों से जीव पहिचाना जाता है? उत्तर : नहीं, ये सर्व चिह्न तो जड़ के हैं। इनसे आत्मा पहिचान में नहीं आता है। अपने चैतन्यगुण से प्रत्येक आत्मा पहिचाना जाता है। जो स्वयं को नहीं पहिचानता है, वह पर को भी नहीं पहिचानता है। जो स्वयं को पहिचानता है, वही पर को यथार्थ में पहिचान सकता है। किसी बाह्य लिंग से आत्मा नहीं पहिचाना जाता है । (७) आत्मा में असंस्थानपना है। शरीर के भिन्न-भिन्न संस्थानों से अर्थात् आकारों से आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता है। आत्मा का स्वभाव जड़ के सर्व आकारों से रहित है। इसप्रकार आत्मा को पुद्गल से भिन्न करने का साधन ( १ ) अरसपना (२) अरूपपना (३) अगंधपना (४) अव्यक्तपना ( ५ ) अशब्दपना (६) अलिंगग्राह्यपना और (७) असंस्थानपना को कहा गया है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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