SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन पहला प्रवचन वीर निर्वाण संवत् २४७७, माघ कृष्णा-२, शुक्रवार, दिनांक २३/२/१९५१ परद्रव्यों से विभाग का साधनभूत जीव का असाधारण स्वलक्षण जीव में रस नहीं है, गंध नहीं है, स्पर्श गुण की व्यक्तता नहीं है। वह चेतनगुणमय है। आत्मा शब्द नहीं बोलता है, उसीप्रकार वह शब्द का कारण भी नहीं है, लिंग से ग्रहण होने योग्य नहीं है और पर के आकार से रहित है, ऐसा तुम जानो। यहाँ आचार्य भगवान आदेश करते हैं कि तू तेरे आत्मा को ऐसा जान। टीका - (१) आत्मा में अरसपना है। आत्मा में रस नहीं है; क्योंकि उसका स्वभाव रस गुण के अभावरूप है। (२) आत्मा में अरूपीपना है। __ आत्मा में रूप नहीं है; क्योंकि उसका स्वभाव रूप गुण के अभावरूप है। आत्मा में रूपित्व का उपचार करने का कारण प्रश्न : आत्मा में रूपित्व नहीं होने पर भी वह रूपी है अथवा मूर्त है, ऐसा व्यवहारशास्त्र में कथन आता है, उसका क्या स्पष्टीकरण है? ... उत्तर : आत्मा निश्चय से तो अरूपी है, परन्तु कर्म के संयोग की अपेक्षा से व्यवहार से रूपी कहा है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह यथार्थ में रूपी हो जाता हो। शास्त्र में अनेक अपेक्षाओं से कथन आता है । जीव स्वयं विकार करता है, तब जड़कर्म निमित्तरूप होते हैं, उस रूपी कर्म के संयोग । की अपेक्षा से आत्मा में रूपित्व का उपचार किया जाता है। विकारी परिणाम की जीव की योग्यता और उस योग्यता के निमित्तरूपी कर्म का एक क्षेत्र में रहने जितना संबंध बिलकुल ही नहीं होता तो रूपित्व का उपचार भी नहीं हो सकता था।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy