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________________ भगवान ने ऐसा ही स्व-पर का भेदज्ञान करके निर्वाण प्राप्त किया है और इसलिए आज हम उनका पञ्च-कल्याणक मना रहे हैं। जहाँ जिसकी रुचि हो, वहाँ वह भेद नहीं करता परन्तु अखण्ड मानता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के पास एक लाख की सम्पत्ति हो और उसके चार बेटे हों तो प्रत्येक बेटा ऐसा अनुभव करता है कि हमारे पास एक लाख की सम्पत्ति है; उसी प्रकार जिसे पूर्णस्वभाव की रुचि है, वह अपने को पूर्ण अनुभव करता है; भेद नहीं करता। जिस प्रकार कुँवारी कन्या की सगाई होते ही उसका अभिप्राय पलट जाता है और जहाँ उसकी सगाई हुई है, वह उस घर को और उस वर को अपना मानती है तथा वर्तमान घर को अपना नहीं मानती; उसी प्रकार धर्मी जीव ने जब अन्तर स्वभाव के साथ सगाई की, तब तत्काल उसकी रुचि, अर्थात् उसमें अपनापन होते ही संयोगो की तथा राग की रुचि टल जाती है। राग और संयोग होने पर भी वे मेरे नहीं हैं; मैं सिद्ध समान शुद्धात्मा हूँ' - इस प्रकार उसकी दृष्टि पलट जाती है। ऐसी पहचान और प्रतीति करना - यही सिद्धि का पन्थ है। इसके सिवाय और किसी उपाय से भव का अन्त नहीं आ सकता।. (- पञ्च कल्याणक महा-महोत्सव प्रवचन) कौन है वीतराग का भक्त? भगवान के कारण मुझे शुभराग हुआ; इस प्रकार जहाँ तक पर के कारण से राग होने की बुद्धि है, वहाँ तक वीतरागपना अंशमात्र भी नहीं होता तथा उस शुभराग से धर्म माननेवाले को भी किञ्चित् मात्र भी वीतरागता नहीं होती। सर्व प्रथम श्रद्धा में भी वीतरागता हुए बिना राग का अभाव कैसे होगा? आत्मा स्वयं ही पराश्रयभाव से राग करता है और स्वाश्रयभाव से राग का अभाव करके वीतरागता भी स्वयं करता है। इस प्रकार पहचानें तो स्वाश्रयतापूर्वक वीतरागता प्रगट करे। इसका नाम है वीतराग का भक्त। (- सोनगढ़ प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रवचनों में से)
SR No.007136
Book TitlePanch Kalyanak Kya Kyo Kaise
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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