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________________ पञ्च कल्याणक की बाह्य क्रियाएँ तो उनके स्वकाल में हुई हैं। देखो! यह चैतन्यप्रभु की लीला है कि वह स्व को जानते हुए पर को जान लेता है परन्तु पर में कुछ करे - ऐसी उसकी लीला नहीं है। इस स्वाध्याय मन्दिर में ग्रन्थाधिराज समयसार की प्रतिष्ठा हुई है, उसमें मङ्गलाचरण करते हुए श्री कुन्दकुन्दभगवान सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करते हैं - वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं॥1॥ ध्रुव अचल अरु अनुपम गति, पाये हुए सब सिद्ध को, मैं वंद श्रुतकेवलिकथित, कहूँ समयप्राभृत को अहो॥1॥ यहाँ समयसार के प्रारम्भ में ही आचार्य भगवान अन्तर में सिद्धत्व का वैभव परोसते हैं; आत्मा में सिद्ध भगवान की स्थापना करते हैं - यही समयसार की सच्ची प्रतिष्ठा है। समयसार, अर्थात् शुद्ध आत्मा। 'मैं राग हूँ' - ऐसी मिथ्या-मान्यता छोड़कर, 'मैं सिद्ध समान शुद्धात्मा हूँ'- ऐसी प्रतीति करके अपने में शुद्धात्मा की स्थापना करना ही समयसार की सच्ची प्रतिष्ठा है। इस गाथा में आचार्यदेव कहते हैं कि 'हे जीवों! मैं सिद्ध हूँ और तुम भी सिद्ध हो, तुम्हारे आत्मा में सिद्धपना समा जाए - ऐसी ताकत है। जो ज्ञान, सिद्धों को जानकर अपने में सिद्धपने की स्थापना करता है, उस ज्ञान में सिद्ध जैसी सामर्थ्य है। वह राग या अपूर्णता का आदर नहीं करता तथा अपने को परकाकर्ता और पर को अपना कर्ता नहीं मानता, अपितु अपने स्वभाव में ढलकर अनुक्रम से सिद्धदशा प्रकट करके भव-भ्रमण का नाश कर देता है। इस काल में भरतक्षेत्र के जीवों को साक्षात् सिद्धदशा नहीं है परन्तु किसी महा-भाग्यवन्त मुनि को चारित्रदशा प्रकट होती है तथा 'मैं सिद्ध हूँ, मैं सिद्ध हूँ' - इस प्रकार सिद्धत्व का ध्यान करके वे दो-तीन भव में
SR No.007136
Book TitlePanch Kalyanak Kya Kyo Kaise
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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