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चिद्काय की आराधना/83
'शुद्धात्म स्वरूपोऽहम्' सिद्धालय में आन विराजे, केवली अनन्ता। सिद्ध समान महान जग में, तुम हो महन्ता।। पथिक! जरा परद्रव्य से, तुम नाता तोड़ो।
जन जीवन विसार, निज से निज को जोड़ो।। हे भव्य! समस्त बाह्य पंपचों से दूर रहो। परस्पर के परिचय से बचो। पर परिचय में दुःख है और निज परिचय में सुख है।
' जैसा शुद्धात्मा लोकाग्र में निवास कर रहा है, निश्चय से वैसे ही शुद्धात्मा तुम हो। उन्होंने अपनी निधि को व्यक्त कर लिया है और तुम्हारी निधि कर्मों से आवृत्त है। ___ अपनी चिद्काय ही प्रभु है। उसका सतत अनुभव करो। यह आत्मा सिद्धों के समान दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य, अगुरुलघु, अवगाहन, सूक्ष्मत्व तथा अव्याबाधत्व गुणों से युक्त है, आठ प्रकार के कर्मों से रहित है, शांतरूप है, नित्य है, कृतकृत्य है और लोकाग्र निवासी है।
हे भाई! ऐसा उत्तम योग फिर कब मिलेगा। निगोद से निकलकर त्रस पर्याय पाना भी चिन्तामणि प्राप्त करने के समान दुर्लभ है; फिर हमें तो मनुष्य पर्याय और जैन कुल मिला है। धन और कीर्ति मिलना दुर्लभ नहीं है। ऐसा सुयोग मिला वह अधिक समय तक नहीं रहेगा। इसलिए अभी ही बिजली की क्षणिक चमक में मोती पिरो लेने जैसा है। अब तू अपनी चिद्काय को अनुभव में लेकर कर्मों का नाश करने का सतत उद्यम कर।
हे भव्य! जो निज चिद्काय का अनुभव नहीं करता, वह कर्म के परतंत्र होकर पंच परावर्तन कर संसार में नाना दुःखों का अनुभव करता है। जो निज चिद्काय का अनुभव करता है, वह कर्म शत्रुओं का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर अनन्त आनन्द का अनुभव करता है।