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________________ 84/चिकाय की आराधना 'परमज्योति स्वरूपोऽहम् ' केवल ज्योति मम आतम में बसी है। ज्ञानादि कर्म रज से वह तो ढ़की है ।। जागो पथिक! तुम इसे अब तो जगाओ। मुक्ति का पंथ अब तो तुम ना लजावो ।। हे भव्य! रत्नत्रय खड्ग हाथ में लेकर ज्ञानावरणादि रज को दूर हटाओ । तुम देखोगे कि परम ज्योति तुम ही हो। तुम निराबाध रूप से त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य व पर्यायों को एक समय में जानने में समर्थ हो । वह क्षायिक अखंड केवलज्ञान ही परम ज्योति है । हे भाई! परलक्ष्यी मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्याय ज्ञान की टिमटिमाती किरणों का प्रकाश तुम्हारा स्वरूप नहीं है। ये सब विभाव परिणतियाँ है। तुम्हारा आत्मा जीवास्तिकाय प्रखर तेज से दीप्तिमान सूर्य सम_ प्रखर केवलज्ञान रूप परम ज्योति स्वरूप है। हे भाई! अन्तर्मुख होकर निज दिव्यकाय का लक्ष्य करने से निर्दोष ज्ञान एवं निर्दोष सुख का अनुभव होता है। परद्रव्यों का लक्ष्य करने से ज्ञान एवं सुख गुणों का परिणमन मलिन हो जाता है। अज्ञानीजन विषयों के लक्ष्य से विषय सुख का अनुभव करते है और अपनी आत्मिक शांति का घात करते हैं। वे आत्मघाती हैं, दुरात्मा हैं। लोक के जीव बाह्य शरीर को पहिचानते हैं, आभ्यन्तर शरीर निज चिकाय को नहीं पहिचानते। आभ्यन्तर शरीर के अनुभव को वे बाह्य शरीर का ही अनुभव मानते हैं। आभ्यन्तर शरीर मात्र इन्द्रियगोचर होता है, उसका अनुभव नहीं होता। अनुभव आभ्यन्तर शरीर, निज चिकाय, शुद्धात्मा का ही होता है। वे आभ्यन्तर शरीर के अनुभव को हेय मानते हैं । इसप्रकार वे अनुभव रूप मोक्षमार्ग को हेय मानते हैं। इसलिये उनको मोक्षमार्ग की प्राप्ति होना दुर्लभ है। निज चिट्ठाय का अनुभव करने वाले पुरुष चारों घातिया कर्मों का नाश करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करते हैं।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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