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________________ 82/चिद्काय की आराधना 'नित्यानन्द स्वरूपोऽहम्' सतत आनन्द झर रहा है, आत्मा के हर छोर से। ज्ञानी भर-भर पी रहा, अज्ञानी रोता मोह से।। पथिक! समझो कुछ रुको, आनन्द अमृत पिंड हूँ। पीओ भर-भर के ये अमृत, झर रहा मैं नित्य हूँ।। निश्चय नय से यह जीवात्मा सतत आनंद स्वरूप है। हे स्वहित में तत्पर पथिक! मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और शुभाशुभ योग ये चार प्रकार के द्रव्य प्रत्यय ही जीव की बहिर्मुखता का आश्रय कर उसके संसार रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखते हैं। ये ही निष्कर्म आत्मतत्त्व से विलक्षणता लिये हुए होने से कमों को उत्पन्न करने वाले हैं; आत्मा के अव्याबाध नित्यानंद के बाधक हैं। अतः इन चार कर्मों को आत्मा के नित्यानन्द की भावना से युक्त होकर स्वसंवेदनरूप खड्ग के द्वारा नष्ट करो। इससे पूर्व बद्ध कर्मो का संयोग टूटेगा और तुम्हारे नित्यानन्द प्रभु का तुम्हें साक्षात् दर्शन होगा। ____ बहिर्मुखता के कारण यह जीव संसार अवस्था में अनेक कर्मों का बंधक होता है। वह विषयजन्य आनन्दाभास में ही आनन्द मान कर उस की प्राप्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। शुभाशुभ भाव मलिन हैं और निज जीवास्तिकाय निर्मल है, ऐसा यथार्थ भेदज्ञान करो। शुभ भाव में दुनिया धर्म मानती है। यह आश्रव तत्त्व है, आकुलता को उत्पन्न करने वाला है, आत्मा की शांति का उत्पादक नहीं है। भाई! तुझे दुःख का पंथ छोड़ना हो और सुख के पंथ में लगना हो तो निज जीवास्तिकाय का सतत अनुभव करो। निज जीवास्तिकाय का अनुभव करना ही धर्म है। बहिर्मुखता अधर्म है और अंतर्मुखता धर्म है, ऐसी श्रद्धा करो। कर सकते हो तो निज जीवास्तिकाय का ध्यान करो अन्यथा उसकी श्रद्धा करो। यही कर्तव्य है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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