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________________ चिकाय की आराधना / 81 'सहज सुखानन्द स्वरूपोऽहम्' 2 सहज सुख आनन्द स्वामी, देह देवालय में बसे । सिद्ध गुण की वन्दना से, उसके दर्शन भी लसे ।। स्वहित सम्पादन में तत्पर, बंधु अब तो जाग जा। अपनी चिट्ठाय में ही रमकर, निज से निज के पार जा ।। हे स्वहित सम्पादन में तत्पर मुक्ति पथिक! प्रिय बन्धु ! जो कर्ममल से रहित हैं, अत्यंत शुद्ध चैतन्यमय हैं, जो चैतन्य रूपी चांदनी छिटकाने के लिए चन्द्र के समान है तथा जो सर्वगुण सम्पन्न है, केवलबोध के अधिपति हैं, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी का स्मरण कर तथा निश्चय से अपनी चिट्ठाय का ध्यान कर, क्योंकि जो सिद्ध का स्वरूप है, वही तुम्हारा स्वरूप है। उनका स्वरूप व्यक्त हो चुका है और तुम्हें व्यक्त करना है। जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण में स्वर्ण, दूध में घी, तिलों में तेल रहता है, उसी प्रकार शरीर में शिवस्वरूप परमात्मा रहता है। जैसे काष्ठ के भीतर अग्नि शक्तिरूप से रहती है, उसीप्रकार शरीर के भीतर यह आत्मा रहता है। इसप्रकार जो जानता है, वह पण्डित है। यह आत्मा इन्द्रियों के द्वारा अनुभव में नहीं आता है, अंतर्दृष्टि से ही बालगोपाल सब जीवो के अनुभव में आता है, किन्तु बाह्य विषयों में लुब्ध जीव उसका अनुभव नहीं कर पाते हैं। हे भाई! तेरी चिकाय सिद्धों के समान है, सदा परम आनन्दमयी है। यह आत्मा सिद्ध सम शुद्ध स्वाभाविक सुख का भंडार है। उस सहज सुख को प्रगट करने की आवश्यकता है। जो जीव शुद्धात्मा की पारमार्थिक भक्ति से युक्त है अर्थात् जिसने स्वानुभव कर यह दृढ़ विश्वास कर लिया है कि सिद्धालय में स्थित सिद्ध भगवान के समान ही मेरे देह देवालय में स्थित आत्मा अनंत गुणों से युक्त है, उस जीव के मिथ्यात्व और रागादिरूप विभाव भाव नष्ट हो जाते हैं। वह जीवं नवीन कर्मों का बंधक न होकर पूर्व कर्मों की निर्जरा करता है । उसको अपनी चिकाय में अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव होता है।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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