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6/चिद्काय की आराधना
मनुष्य जन्म में ही ध्यान की सिद्धि होती है, संसार से मुक्त होता है। इसलिये इस अवसर को नहीं गँवाना चाहिए। मनुष्य जन्म प्राप्त करने के लिये देव भी तरसते हैं। ___ समाधिशतक, श्लोक 52 में कहा है कि प्रारम्भिक अवस्था में साधक को पूर्व संस्कारवश बाह्य विषयों में सुख प्रतीत होता है और आत्मा में दुःख। ध्यान का अभ्यास हो जाने पर बाह्य विषयों में दुःख प्रतीत होता है और आत्मा में सुख। ध्यानाभ्यास की प्राथमिक अवस्था में ध्यान करना दुखद लगता है और ध्यान रहित रहना सुखद। इसलिए लोग ध्यानाभ्यास नहीं कर पाते। ध्यानाभ्यास की आगे की अवस्थाओं में ध्यान करना सुखद लगता है और ध्यान रहित रहना दुखद। इसलिए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। __ जैसे जल की बूँद बार-बार गिरने से पत्थर में भी छेद हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान के अभ्यास से जड़ बुद्धि जीव श्री परमात्मा हो जाता है। इसलिए ध्यान का सदा अभ्यास करना चाहिए।
यह चिद्काय का ही माहात्म्य है कि उसके रहते हुए पुद्गलकाय मुर्दे के समान सड़ती नहीं है और उसके निकल जाने के बाद सड़ने लग जाती है। चिद्काय के निकल जाने के बाद शरीर के सुन्दर होने पर भी कोई उसे छूना भी नहीं चाहता। इससे ज्ञात होता है कि चिद्काय ही सारभूत है। वह मैं ही हूँ, मुझे मेरी ही महिमा नहीं आई। मेरी वास्तविक संपत्ति, मेरा धन, मेरी निधि तो मेरे ही पास है, मैं ही हूँ। बाह्य काय में ही अभ्यंतर काय जो स्वसंवेदन से अनुभव में आ रही है, वह ही मेरा धन है। भगवान आत्मा प्राप्त देह में ही देह के आकार में विराजमान है, वहाँ पर अपने उपयोग को जोड़ने का अभ्यास करो। इसी से कर्मों से मुक्ति मिलेगी।
इन्द्रिय विषयों में जो आनन्द मानता है, वह तो विष को पीता है। अरे ! मैं अपने को ही भूला हुआ हूँ। कितना खेद है कि अपने स्वरूप को जानने का मैंने कौतूहल भी नहीं किया। अरे! ऐसी बात सुनकर भी मुझे रोना भी नहीं आता है कि मैंने स्वयं अपना ही बहुमान, अपनी ही महिमा अब तक क्यों नहीं की। अहा!