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चिद्काय की आराधना/5
ताहि सुनो भविमन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।।
हे भव्य जीवो! यदि अपना हित चाहते हो तो मन को स्थिर करके गुरु की शिक्षा सुनो। इस संसार में प्राणी अनादि काल से मोहरूपी मदिरा पीकर अपने आत्मा को, अपनी ही दिव्य काया को भूलकर संसार में व्यर्थ भटक रहा है।
इस संसार में जीव पंच परावर्तन कर भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोह कर्मोदय रूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है। वे विषयों की तृष्णारूपी दाह से पीड़ित होते हैं और उस दाह का इलाज इन्द्रियों के रूपादि विषयों को जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं।
इस जीव ने काम-भोग की कथा तो अनन्त बार सुनी है, परिचय में ली है और अनुभव में ली है; इसलिये सुलभ है; किन्तु परद्रव्यों से भिन्न एक चैतन्य चमत्कार स्वरूप अपने आत्मा की कथा कभी न सुनी है, न परिचय में ली है
और न अनुभव में ली है; इसलिये एक मात्र वह सुलभ नहीं है। ___ आचार्य महाराज बारम्बार प्रेरणा देते हैं कि हे जगत के जीवों! ऐसा उत्तम अवसर पाकर तुम कहाँ भटक रहे हो? तुम्हारी चिद्काय परमात्मरूप है, आवेनाशी देवस्वरूप है। उसी की तुम सदा भावना करो, ध्यान करो।
श्री योगीन्द्रदेव कहते हैं कि तू सब विकल्पों को छोड़कर केवल एक परमात्मा, शुद्धात्मा, चिद्काय का ध्यान कर। इस देह में ही शुद्धात्मा का निवास है, ऐसा निश्चय कर। इसी उपाय से ही कर्म ढीले पड़ेंगे और स्वरूप में पूर्ण लीन होने पर सारे कर्मों का नाश होकर परमात्मा बनोगे। यही एक मोक्ष का मार्ग है। __ आत्मस्वभाव से सब शुभाशुभ कर्मों को भिन्न जानो। आत्मस्वभाव अत्यन्त निर्मल है। द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म जड़ हैं और भगवान आत्मा निर्मल है, अमल है। अमल स्वरूपी दिव्यकाय, भगवान आत्मा का जिसने आश्रय लिया, वह पर्याय में अहँत-सिद्ध हो गया।