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चिकाय की आराधना / 7
आनन्द का सागर अपने अन्तर में उछल रहा है। उसे तो मैं देखता नहीं हूँ और तृण समान तुच्छ विषयों को ही देखता हूँ।
अरे! अपने ही अन्तर में दृष्टि लगाकर चैतन्य समुद्र को देखो, उसमें डुबकी लगाओ। अपनी चैतन्य काया को छोड़कर बाहर में सब मायाजाल है, दुःख का पहाड़ है, घोर संसार है।
शरीर और आत्मा एक क्षेत्रावगाही होने पर भी जो स्वसंवेदनगोचर क्षेत्र है, वह आत्मा का क्षेत्र है। हमें अन्तर्दृष्टि से पैर से मस्तक पर्यंत अपने क्षेत्र में अपना आत्मा ही स्वसंवेदनगोचर होता है। स्वसंवेदनगम्य अपने दिव्य शरीर के प्रति हमारी अक्षय अनन्त रुचि होनी चाहिए ।
अपने क्षेत्र में ही अन्तर्दृष्टि द्वारा हमें अपना अनुभव करना चाहिए। अपने स्वरूप का अनुभव करना ही तीर्थ है। हमें उपयोग लगाने के लिए अपना भगवान आत्मा, अपनी चिट्ठाय मिली हैं। इसलिए हमें अपने उपयोग को सदा अपनी चिकाय में ही लगाना चाहिए।
निज सुखद जीवास्तिकाय का ध्यान करना आत्मा का स्वभाव है, धर्म है, जो आत्मा को संसार के दुःखों से निकाल कर अनन्त सुखमयी मोक्ष में धरता है।
जो सुख-दुःख रूप से संवेदन में आने वाले आम्यंतर शरीर को आत्मा नहीं मानते, उसका अनुभव नहीं करते; वे प्रगट मिथ्यादृष्टि है, आत्मघाती हैं, दुरात्मा हैं।
समय रहते ही अपना कार्य कर लेने में समझदारी है। मृत्यु को याद रख कार्य करना, मृत्यु के लिए सदा तैयार रहना । मृत्यु आने से पहले सावधान होना । मृत्यु के काल में कायरों को अपने पास नहीं आने देना। मृत्यु कभी भी आ 'सकती है। इसलिये एक-एक समय मूल्यवान है। मृत्यु आने से पहले अपना हित कर लेना । उपयोग हर समय उपलब्ध है, अपना काम करो तो करो, नहीं करो तो नहीं करो। यह सब अपने ऊपर ही निर्भर है। उपयोग तो चिकाय का है। चिदूकाय में लगे तो मोक्षमार्ग है, मोक्ष है और चिकाय के बाहर लगे तो