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________________ चिद्काय की आराधना/17 आत्महित करने के कार्य में रस नहीं है। यदि वास्तव में तुझे परमार्थ आत्महित का रस हो तो अन्य हजारों काम छोड़कर भी निज चिद्काय के ध्यान का उद्यम करे। अब परमार्थ आत्महित के लिये अन्य सभी कार्यों का रस छोड़कर सर्व उद्यम से निज चिद्काय का ध्यान कर। जितने भी जीव पूर्व में मोक्ष में गये हैं, वर्तमान मे जा रहे हैं और आगे भी . जो मोक्ष में जायेंगे, वे सब निज चिद्काय का ध्यान करने से गये हैं, जा रहे हैं और जायेंगे। निज चिद्काय के ध्यान की ही सर्व महिमा है। ऐसा मुनियों के नाथ भगवान जिनदेव कहते हैं। विषय रूपी चाह की दाह को बुझाने में एक निज चिद्काय का ध्यान ही समर्थ है। भाई! इस समय तुझे सब तरह से उत्तम योग मिले हैं। ऐसा सुयोग को विषय सुख के लिये खोना बहुत बड़ी भूल है। ऐसा सुयोग मिलना बहुत कठिन है। अतः तू इस अवसर में आत्मा का, निज दिव्यकाय का ध्यान कर। कहा भी है तातें जिनवर कथित, तत्त्व अभ्यास करीजै।-- संशय विभ्रम मोह त्याग आपोलख लीजै।। जिन प्रणीत आगम का अभ्यास कर निज चिद्काय का ध्यान कर। इस में आलस्य मत कर। यह भेदज्ञान कर कि जो शरीर आँखों से दीख रहा है, वह निश्चय से मैं नहीं हूँ। यह शरीर तो मूर्तिक है, जड़ है, अचेतन है। इसी क्षेत्र में मेरी दिव्य काया है, जो परमार्थ से अमूर्तिक है, चेतन है, वही मैं हूँ। वह मैं मेरे स्वसंवेदन से अनुभव में आता हूँ। इन्द्रियों को जीतने का उपाय यही ही है कि आँखें बन्द करके जिन मुद्रा की तरह ध्यान में बैठकर अपनी दिव्यकाया के एक-एक अंग को क्रमशः देखते रहो तथा इसी में लीन रहने का अभ्यास करो। अपनी दिव्यकाया का ही हमने आज तक विस्मरण किया है। हमने यही माना है इधर देखेंगे तो पुद्गलकाय ही दिखेगी। लेकिन यह अज्ञान है। यह मनुष्य पर्याय असमानजातीय दो द्रव्यों से बनी हुई है। हम तो अमूर्तिक
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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