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________________ 16/चिद्काय की आराधना जाने की तो.बात ही क्या है? इनका तो इस इन्द्रियगोचर देह के साथ ही सम्बन्ध है, चिद्देह के साथ सम्बन्ध नहीं है। । पंचम काल के मुनि पंचम काल के अप्रतिबुद्ध श्रोताओं को सम्बोधन करते हैं कि तू तो निगोद से बाहर निकल चुका है, मनुष्यपना प्राप्त करके जिनवाणी श्रवण करने आया है और श्रवण कर रहा है तो तू परिणमित होने योग्य ही है, इसलिये सन्देह मत कर। हम भगवान की वाणी का अनुसरण करके तुझसे यह कह रहे हैं कि तू पूर्ण परमात्म तत्त्व है और तद्रूप परिणमन करने योग्य है। .. अरे जीव! दूसरा सब भूल जा और अपनी निज दिव्यकाय को सँभाल। यदि तु अपनी चिद्काय की दृष्टि करे तो मुक्त ही है। इसलिये एक बार अन्य सब का लक्ष्य छोड़ दे और ऐसे अपने चिदानन्द स्वभाव निज जीवास्तिकाय जो कि पाँव से लेकर मस्तक तक विराजमान है, उसका एकाग्र होकर लक्ष्य कर। तुझे मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होगी। अल्पकाल में तू अवश्य मुक्ति प्राप्त करेगा। . भगवान आत्मा जब भी देखो तभी हाजिर है। अहो! जब देखो तभी तुम्हारा कारण तुम्हारे पास ही विद्यमान है। उस कारण को नया उत्पन्न नहीं करना पड़ता। उसके आश्रय से कार्य प्रगट हो जाता है। कारण शोधने के लिये कहीं जाना पड़े, ऐसा नहीं है। ध्रुव कारण तो त्रिकाल विद्यमान है और उसे पहिचानने पर मोक्षमार्ग नवीन प्रगट होता है। मोक्ष तो कार्य नियम है और ध्रुवस्वभाव कारण नियम है। कारण नियम को करना नहीं पड़ता, वह तो त्रिकाल है। जब देखो तब वर्तमान में अन्तर में ही उपस्थित है। उसमें अंतर्मुख होने पर कार्य नियम से प्रकट होता है। - अरे रे! अनादि-अनन्त अपने स्वरूप के ध्यान के बिना जीव ने अनन्त दुःख सहन किये, किन्तु समस्त विकारी भावों का अभाव करने वाला निज चिद्काय का ध्यान नहीं किया। अरे आत्मन्! तुझे संसार के कार्यों के लिए तो समय मिलता है, किन्तु परमार्थ आत्महित के लिए समय नहीं मिलता। इसलिए समझना चाहिए कि तुझे परमार्थ आत्महित प्रिय नहीं है। तुझे संसार के कार्यों में रस है, किन्तु परमार्थ
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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