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________________ 18/चिद्काय की आराधना चेतन द्रव्य हैं और इसी पुद्गलकाय में स्थित हैं। यहीं पर ही आँखें बन्द करके अपने उपयोग को एकाग्र करके जिनवर की ध्यान मुद्रा में बैठकर ध्यान लगाओ और अपने ही शरीराकार आत्म प्रदेशों को, एक-एक अंग को निहारते रहो, देखते रहो। यही स्वानुभूति है, सम्यग्दर्शन है, धर्मध्यान है, शुद्धोपयोग है। ____ अपने उपयोग को अपने दिव्य शरीर के बाहर मत भटकने दो। उपयोग तो अपने दिव्य शरीर का है, उसे अपने दिव्य शरीर में ही जोड़ने का अभ्यास करो। जब तक उपयोग बाहर जायेगा, मोह रागादि उत्पन्न होंगे और पर्याय अशुद्ध रहेगी। जब तक हम अपने ही दिव्य शरीर, त्रिकाली भगवान आत्मा का आश्रय नहीं लेंगे, तब तक पर्याय बहिर्मुख और मलिन रहेगी। यदि तुझे इस भयंकर दुःखमय संसार से छूटना हो तो अन्तरंग में सुख का निधान शुद्धात्मा तेरी दिव्य काया है, उसमें अपने उपयोग को जोड़। यदि थोड़ी-बहुत धर्म बुद्धि हुई तो जीव धर्म के मूल स्वरूप तक नहीं पहुँचता है। शास्त्रों को पढ़कर पंडित बन जाता है, मठ-मन्दिर में रहने लगता है, मठाधीश बन जाता है या फिर केशलुंच करके द्रव्यलिंगी साधु हो जाता है; पर निज चिद्काय का ध्यान करने में अपने पुरुषार्थ को नहीं लगाता है। इसलिये जहाँ का तहाँ ही रहता है, आत्म-कल्याण के मार्ग, मुक्ति के मार्ग पर नहीं चल पाता है। ऐसी स्थिति में मुक्ति की प्राप्ति कैसे संभव है? योगसार में कहा है धन्धे पड़ा सारा जगत, निज आत्मा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव, यह निर्वाण को पाता नहीं ।। शास्त्र पढ़ता जीव जड़, पर आत्मा जाने नहीं। बस इसलिए ही जीव, यह निर्वाण को पाता नहीं।। पोथी पढ़े से धर्म ना, ना धर्म मठ के वास से। ना धर्म मस्तक हुँच से, ना धर्म पीछी ग्रहण से।। जो होयगें या हो रहे या, सिद्ध अब तक जो हुए।
SR No.007134
Book TitleChidkay Ki Aradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmal Sethi
PublisherUmradevi Jaganmal Sethi
Publication Year2000
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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