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________________ संसारावस्था के तीन व्यवहार अरे मूढ़! तुझे क्या हो गया है? अब तो समझ! तेरा शुद्ध व्यवहार तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की शुद्धपरिणति में है, शुद्धचेतना परिणति वही तेरा आत्मव्यवहार है। अज्ञानी के अशुद्धपरिणति तो उसका अशुद्धव्यवहार है। अरे जीव! तेरा व्यवहार क्या और तेरा निश्चय क्या? इसे भी तू नहीं जानता, अपने भावों को ही तू नहीं पहिचानता, तो किस प्रकार तू धर्म करेगा? अतः अपने भावों को तू भली प्रकार पहिचान, तभी तेरा हित हो सकेगा। सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञानानन्दस्वरूप को परोक्षप्रमाण से अनुभवता है। सम्यक् मतिश्रुतज्ञान में इन्द्रिय और मन के अवलम्बन बिना जो रागरहित संवेदन होता है, उसकी अपेक्षा से वहाँ आंशिक प्रत्यक्षपना भी है; परन्तु मति-श्रुतज्ञान होने से उसे परोक्ष कहा है। इस सम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण पण्डित टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी के विवेचन में आ गया है। स्वानुभव से आत्मस्वरूप को जाना है, इसीकारण धर्मी जीव पर की क्रिया को अथवा पर के स्वरूप को अपना नहीं मानता; इनसे भिन्न ही अपने ज्ञानस्वरूप को जानता है, और ऐसे निजस्वरूप के ध्यान-विचाररूप क्रिया में वर्तता है - यही उसका मिश्रव्यवहार है। प्रश्न – इसको मिश्रव्यवहार क्यों कहा? उत्तर - चूँकि साधक को अभी पूर्ण शुद्धता हुई नहीं है, उसकी पर्याय में कुछ शुद्धता और कुछ अशुद्धता – दोनों साथ-साथ वर्तती है; इसलिये उसको मिश्रव्यवहार कहा। प्रश्न - मिश्रव्यवहार तो चौथे से बारहवें गुणस्थान पर्यन्त कहा है, वहाँ बारहवें गुणस्थान में तो किंचित् भी रागादि अशुद्धता है नहीं; फिर वहाँ मिश्रपना कैसे कहा? उत्तर - राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्धता वहाँ नहीं रही - यह बात तो ठीक; परन्तु वहाँ अभी ज्ञानादिगुणों की अवस्था अपूर्ण है अर्थात् अल्प
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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