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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन है। अन्य द्रव्य के संयोग से हुई मनुष्यादि पर्याय वह वास्तव में आत्मस्वरूप नहीं है; किन्तु अज्ञानी तो 'मैं ही मनुष्य हूँ' ऐसा मानकर ही वर्तन करता है, उसको आचार्य ने प्रवचनसार शास्त्र में व्यवहारमूढ़ - परसमय कहा है। भाई ! 'मनुष्यव्यवहार' यह वास्तव में तेरा व्यवहार नहीं है; परन्तु शुद्ध चेतना के विलासरूप जो आत्मव्यवहार है, वही तेरा व्यवहार है और तेरी शुद्धचेतनापर्याय ही तेरा व्यवहार है । तेरा व्यवहार तुझ में होगा या परद्रव्य होगा? अरे! सोच तो सही, तेरा व्यवहार तुझ में और पर का व्यवहार पर में - यही न्यायमार्ग है । 28 प्रश्न - व्यवहार को तो पराश्रित कहा है न? उत्तर – यहाँ अभेद सो निश्चय और भेद सो व्यवहार - यह विवक्षा है। भेद के विचार में जब तक पर का अवलम्बन है तब तक उसको भी पराश्रित कह सकते हैं; परन्तु जो भेदरूप भाव अर्थात् पर्याय है, वह अपने में ही उत्पन्न होती है, पर में नहीं होती है । - आत्मा तो चैतन्यस्वरूप है, वह मनुष्यादि देहरूप नहीं है। भाई ! मनुष्यव्यवहार तो मिथ्यादृष्टि का है अर्थात् चेतनास्वरूप को भूलकर 'मैं मनुष्य ही हूँ' – ऐसी देहबुद्धि से अज्ञानी प्रवर्तता है । 'मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह शरीर हैं' – इसप्रकार अहंकार - ममकार से अपने को ठगाता हुआ अविचलितचेतनाविलास-मात्र आत्मव्यवहार से च्युत होता है, और समस्त क्रियाकलापों से आकण्ठपूरित ऐसे मनुष्यव्यवहार का आश्रय करके रागी-द्वेषी होता है। इस कारण से अज्ञानी परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगति करने से वास्तव में परसमय है ।" लोगों में मानवधर्म के नाम से अनेक घोटाले चल रहे हैं। यहाँ सन्त कहते हैं कि - 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसी मिथ्याबुद्धि तो अधर्म है। भाई ! तू तो आत्मा है, तेरा विलास चेतनारूप है; जड़ देह की क्रिया में तेरा व्यवहार है ही कहाँ ? और रागादि अशुद्ध परिणति भी वास्तव में तेरा व्यवहार नहीं है, वह तो अशुद्धव्यवहार है। १. प्रवचनसार, गाथा ९४ की टीका
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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