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________________ 30 परमार्थवचनिका प्रवचन ज्ञानादि की अपेक्षा से (उदयभावरूप अज्ञानभाव है इस अपेक्षा से) अशुद्धता परिगणित कर मिश्रभाव कहा। प्रश्न – यदि ऐसा है तो केवली भगवान के भी योग का कम्पन आदि उदयभाव है, इसलिये उनके भी मिश्रपना कहना चाहिये? उत्तर – नहीं, केवली भगवान के ज्ञानादिपरिणति सम्पूर्ण शुद्ध हो गई है और अब जो योग का कम्पन आदि है, वह नवीन कर्म सम्बन्ध का कारण नहीं होता, अर्थात् उनके अकेली शुद्धता ही मानकर शुद्ध व्यवहार कहा है। सम्यग्दृष्टि को मिश्रव्यवहार कहा है। वहाँ आत्मा और शरीर की मिलकर क्रिया होती है - ऐसा 'मिथ' का अर्थ नहीं है; किन्तु अपनी पर्याय में किंचित् शुद्धता और किंचित् अशुद्धता यह दोनों एकसाथ होने से मिश्र कहा है। आत्मा में सम्यग्दर्शन होते ही चौथे गुणस्थान से आंशिक शुद्धता प्रगटी है, वहाँ से लेकर बारहवें गुणस्थान तक साधकदशा है। ऐसी परिणतिवाले जीव को 'मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य' कहा है। प्रश्न – सम्यग्दृष्टि तो अपने शुद्धद्रव्य को जानता है, तो भी उसको 'शुद्ध-अशुद्ध-मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य' क्यों कहा? उत्तर – सम्यग्दृष्टि की निश्चयदृष्टि में - प्रतीति में कहीं शुद्धाशुद्ध आत्मा नहीं है, उसकी दृष्टि में तो शुद्धात्मा ही है; परन्तु पर्याय में अभी उसको सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा स्वरूपाचरणचारित्रादि शुद्धांशों के साथ रागादिक अशुद्धांश भी हैं, अतः उसकी शुद्ध और अशुद्ध – ऐसी मिश्रभावरूप अवस्था है; उस मिश्रभाव के साथ अभेदता मानकर उस द्रव्य को भी वैसा 'मिश्रनिश्चयात्मक कहा है। द्रव्यदृष्टि से देखने पर तो द्रव्य शुद्ध ही है, अशुद्धता उसमें है नहीं। कहा है : णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति शुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव॥६॥ अर्थात् आत्मा को शुद्धदृष्टि से देखो तो वह अप्रमत्त-प्रमत्त अथवा
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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