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________________ 18 परमार्थवचनिका प्रवचन में अनन्त-अनन्त पुद्गलपरमाणु रहते हैं। यद्यपि इसप्रकार की अवस्था अनादिकाल से ही हैं; तथापि अनादिकाल से वे ही कर्मवर्गणायें अथवा उन ही कर्मपरमाणुओं का समूह सम्बन्धित हो - ऐसा नहीं है। अनादिकाल, से प्रतिसमय अनन्त पूर्वबद्धपरमाणु छूटते हैं और नवीन बँधते हैं। कर्मबंधन की प्रकृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम की है। कोई भी कर्मपरमाणु इससे अधिक पुराना नहीं रह सकता; बाद में भले ही कोई रजकण मुक्त होकर पुनः जीव के साथ बंधन को प्राप्त हो जाये। इसप्रकार यह एक जीवद्रव्य के साथ अनन्त कर्मरूप पुद्गलपरमाणु - चलाचलरूप शक्तिसहित रहते हैं। अहो! इससे स्वतंत्रता का सिद्धान्त ही प्रतिफलित होता है। कैसा अलौकिक भेद-विज्ञान वीतरागी सन्तों ने शास्त्रों में भर दिया है। जीव के साथ सम्बन्ध रखनेवाले कर्मपरमाणुओं में क्षण-क्षण नवीनआगमन तथा पूर्वबद्ध परमाणुओं का गमन होता रहता है, इसप्रकार आगमनगमनरूपशक्ति सहित रहते हैं। जीव द्रव्य तो एक है, उसके निमित्त से कर्मों का जो आना-जाना होता है, वह तो उनकी स्वयं की परिणमनशक्ति से होता है। आकाश द्रव्य की अपेक्षा भले ही जीव और कर्म एकक्षेत्र में हों, परन्तु स्वचतुष्टय की अपेक्षा तो भिन्न-भिन्न ही हैं। दोनों अपनी-अपनी परिणमनशक्ति से परिणमन करते हैं। पुद्गलकर्मवर्गणाओं में निरंतरता क्षण-क्षण में अनन्त-अनन्त परमाणुओं की घट-बड़ होती रहती है, वह उसके ही अनन्ताकार परिणमनरूप होने से होती है। वर्ण-रस-गंध-स्पर्श अथवा प्रकृतिप्रदेश-स्थिति-अनुभाग की अपेक्षा उनका अनेकाकारपना तो है ही। - वे पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकार से बंधनेरूप और छूटनेरूप अवस्थाओं की अपेक्षा बंध-मुक्तिशक्ति सहित भी रहते हैं। जीव के विकार के
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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