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________________ संसारावस्था जीव की अवस्था निमित्त से जिससमय अनन्तकर्मपरमाणु बंधते हैं; उसीसमय अनन्तकर्मपरमाणु अपना फल देकर मुक्त हो जाते हैं। इसप्रकार जीवपुद्गल आदि समस्तद्रव्यों में अनन्त-अनन्त शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। . जीव व पुद्गल की शक्तियों का सरस वर्णन नाटक समयसार में पण्डित बनारसीदासजी ने इसप्रकार किया है : | समता रमता उर्ध्वता, ज्ञायकता सुखभास । वेदकता चैतन्यता - यह सब जीव-विलास ॥ तनता मनता वचनता, जड़ता जड़सम्मेल। | गुरुता लघुता गमनता - यह अजीव के खेल॥ आचार्य कुन्दकुन्द के सर्वोत्कृष्ट ग्रंथराज ‘समयसार' की टीका आचार्य अमृतचन्द्र ने ‘आत्मख्याति' नाम से की। इस टीका के बीच-बीच में संस्कृतभाषा में कलशों (छन्दों) की रचना हुई है। उन कलशों की पं. राजमलजी पाण्डे द्वारा ‘बालबोधिनी टीका' लिखी गई, उसमें भी अध्यात्म के गंभीरभावों का समावेश हुआ है। पण्डित बनारसीदासजी ने उसे पढ़ने के बाद उसके आधार पर 'नाटक समयसार' की रचना की। इन्हीं पं. बनारसीदासजी ने यह परमार्थवचनिका नाम का लघुग्रंथ भी बनाया, जिसमें अध्यात्म और आगम दोनों का सहारा लेकर बहुत गंभीरभावों को थोड़े में व्यक्त किया है। इसप्रकार यहाँ यह बतलाया है कि जीव और पुद्गल का स्वभाव तो त्रिकाल भिन्न है, फिर भी संसारावस्था में जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अनादि से है। उनमें जीवद्रव्य तो एक है; परन्तु पुद्गलद्रव्य अनन्तान्त, चलाचलरूप, आगमनगमनरूप, अनन्ताकारपरिणमनरूप बन्ध-मुक्तिशक्ति सहित परिणमते हैं। -*
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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