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________________ संसारावस्था जीव की अवस्था अनन्तधर्मों के चक्र को तो चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते। अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाहरूप से रहने पर भी सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते तथा पररूप परिणमन न करने के कारण जिनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भाँति स्थित रहते हैं।” – इसप्रकार अनंतपदार्थ एक ही क्षेत्र में साथ-साथ अनादिकाल से रहने पर भी प्रत्येक पदार्थ का निजनिज स्वरूप भिन्न-भिन्न ही रहता है। यद्यपि लोक असंख्यप्रदेशी है; तथापि इसमें असंख्य-असंख्यप्रदेशी अनन्तजीव रहते हैं तथा एकद्रव्य के प्रदेश दूसरे द्रव्य के प्रदेश को स्पर्श भी नहीं करते। यहाँ कोई कहे कि जब लोक के असंख्यप्रदेशों में अनन्तजीव रहते हैं तो अनन्तजीवों के असंख्यातवें भाग जीव एकप्रदेश में रहेंगे; परन्तु इसप्रकार का त्रैराशिक माप (गणित से संबंधित) यहाँ वस्तु के स्वभाव में अनुकूल नहीं होता, क्योंकि एक जीव चाहे जितना संकुचित हो जाय तो भी वह असंख्यप्रदेश में ही रहेगा। असंख्यप्रदेशों से कम प्रदेशों में वह कभी भी नहीं रहता। जीव के असंख्यप्रदेशों का स्वरूप इसप्रकार है कि यदि उनका अत्यधिक विस्तार हो जाय तो एक जीव लोकप्रमाण हो जाय और लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जीव के एक-एक प्रदेश स्थित हो जायें; परन्तु इतना विस्तार होने पर भी लोकाकाश के असंख्यप्रदेशों के समान जीव के प्रदेश भी असंख्य ही रहेंगे। और यदि जीव अत्यधिक संकुचित हो जाय तो लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग ही रोके, परन्तु फिर भी जीव के प्रदेश असंख्यप्रदेशत्व की सीमा का उल्लंघन नहीं करते; क्योंकि असंख्यात में असंख्यात का भाग देने पर असंख्यात ही शेष रहता है। इसका कारण यह है कि असंख्यात भी असंख्यप्रकार का होता है। ... एक-एक जीवप्रदेश पर अनन्त कर्मवर्गणायें रहती है, जीव-परिणाम के निमित्त से इनका एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध हुआ है। इन कर्मवर्गणाओं
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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