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________________ 16 परमार्थवचनिका प्रवचन संसारदशा चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त है और जब तक संसारदशा है, तंब तक अनन्त पुद्गलकर्मपरमाणुओं का एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध अवश्य होता है। यद्यपि सिद्धशिला में भी अनन्त कर्मवर्गणायें रहती हैं; तथापि वे सिद्धों के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के अभाव के कारण एकक्षेत्रावगाहरूप से सम्बन्धित नहीं हैं, अतः यहाँ पर उनकी चर्चा नहीं है। सिद्धजीव तो पूर्णरूप से शुद्ध हो चुके हैं, अतएव उनका परमाणुओं के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी नहीं है; परन्तु संसारीजीव तो अशुद्धता के निमित्त से कर्मवर्गणाओं को बाँधता है तथा एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध स्थापित करता है। यहाँ परमार्थवचनिका में उन्हीं कर्मवर्गणाओं की चर्चा है, जो आत्मद्रव्य के साथ सम्बन्ध बनाये हुये हैं। उन कर्मवर्गणाओं की यहाँ चर्चा नहीं है, जो सारे लोक में तथा सिद्धशिला में भी भरी पड़ी हैं। यद्यपि जीव और पुद्गल का एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, अनादि से एकक्षेत्र में रहते आये हैं; तथापि दोनों के स्वप्रदेश तो भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। आकाश द्रव्य की अपेक्षा जीव और पुद्गल का एकक्षेत्र कहा जाता है, फिर भी वास्तव में प्रत्येक द्रव्य का अपना-अपना स्वप्रदेश भिन्न ही है। प्रत्येक जीव असंख्यातप्रदेशी है, अतः प्रत्येक जीव के असंख्य स्वप्रदेश हैं, वे अरूपी हैं। प्रत्येक पुद्गलपरमाणु का अपना एकप्रदेश है, वह रूपी है। यदि एकक्षेत्र में अनन्तजीव भी हों तो भी प्रत्येक जीव के स्वप्रदेश जुदे-जुदे ही हैं; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वचतुष्टय में रहता है, सबका पृथक्-पृथक् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव होता है। किसी भी एक द्रव्य का स्वक्षेत्र कभी किसी दूसरे द्रव्य में नहीं मिलता। श्री समयसार शास्त्र की तीसरी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि – “सर्वपदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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