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________________ संसारावस्था जीव की अवस्था सर्वज्ञकथित जिनमार्ग में जिसे आस्था हो, उसी के हृदय में यह बात जम सकती है। इस वचनिका के अन्त में पं. बनारसीदासजी स्वयं कहते हैं कि यह वचनिका यथायोग्य सुमति -प्रमाण केवलीवचनानुसार है। जो जीव इसे सुनेगा, समझेगा तथा श्रद्धान करेगा, उसका यथायोग्य भाग्यानुसार कल्याण होगा। 15 'केवलीवचनानुसार' कहने का तात्पर्य यह है कि इसे समझने के लिए केवली भगवान की श्रद्धा होना परम आवश्यक है। जिसको केवली भगवान सर्वज्ञदेव की श्रद्धा नहीं है, उसे यह परमार्थवचनिका भी समझ में नहीं आ सकती। संसार में अनन्त जीव हैं, अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु हैं; सभी अपनेअपने गुण - पर्यायों सहित विराजमान हैं तथा प्रत्येक के परिणाम भिन्नभिन्न प्रकार के हैं। किसी के भी परिणाम अन्य के साथ समानता नहीं रखते – यह सिद्धान्त बतलाया । - अब उन जीव और पुद्गलों की भिन्न-भिन्न अवस्था का विशेष वर्णन करते हैं: -: अब, जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्य एकक्षेत्रावगाही अनादिकाल के हैं। उनमें विशेष इतना कि जीवद्रव्य एक, पुद्गलपरमाणु द्रव्य अनन्तानन्त, चलाचलरूप, आगमनगमनरूप, अनंताकारपरिणमनरूप, बन्ध-मुक्ति शक्ति सहित वर्तते हैं। जगत में जीव और पुद्गलकर्मवर्गणाओं का अनादिकाल से एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध है। अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु एक-एक जीव के साथ सम्बन्धित हैं। चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में भी जीव का सम्बन्ध अनन्त पुद्गलपरमाणुओं से है । यद्यपि वह जीव अगले समय में सिद्धत्व प्राप्त करने वाला है तथा उसके सबसे न्यून कर्मवर्गणायें एक क्षेत्रावगाहरूप से सम्बन्धित हैं; तथापि कर्मवर्गणायें अनन्त ही है।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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