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________________ नियमसार अनुशीलन छोड़कर मुनि अपने स्वभाव में ज्ञानदशारूप परिणमते हैं, अतः वे प्रतिक्रमणमय हैं। यहाँ मैं प्रतिक्रमण करनेवाला और यह प्रतिक्रमण की पर्याय – ऐसा कर्ता-कर्म का भेद नहीं, अभेदस्वभाव में ठहर गया है; इसलिए प्रतिक्रमणमय है - ऐसा कहा है।' शल्य का परित्याग करने जाय तो शल्य का परित्याग नहीं होता, किन्तु 'आत्मा चिदानन्द ध्रुवस्वरूप है' - ऐसी श्रद्धा-ज्ञान करने पर मिथ्यात्वशल्य उत्पन्न ही नहीं होती और अन्तर स्थिरता करने पर अस्थिरतारूप माया और वाँछा उत्पन्न नहीं होती, इसलिए उन्होंने तीनों शल्यों का परित्याग किया - ऐसा कथन करने में आता है। इसप्रकार तीन शल्यों को त्याग कर, जो परमयोगी परमनिःशल्यस्वरूप आत्मा में निश्चल होते हैं, उन्हें निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है।" उक्त गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मिथ्यात्व, माया और निदान – इन तीन शल्यों को छोड़कर जो ज्ञानी धर्मात्मा या मुनिराज परमनिःशल्यस्वभाव में ही ठहरते हैं, नि:शल्यभावरूप परिणमित होते हैं; वे स्वयं ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं; क्योंकि उन्हें स्वरूपगत परमार्थप्रतिक्रमण तो है ही ।।८७।। इस गाथा की टीका के उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं, जिनमें पहला छन्द इसप्रकार है - (अनुष्टुभ् ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि । स्थित्वा विद्वान्सदाशुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ॥११६ ।। (दोहा) शल्य रहित परमात्म में तीन शल्य को छोड़। स्थित रह शुद्धात्म को भा पंडित लोग ।।११६|| तीन शल्यों को छोड़कर, निःशल्य परमात्मा में स्थिर रहकर, विद्वानों को शुद्धात्मा को सदा स्फुटरूप से भाना चाहिए। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७०५-७०९ २. वही, पृष्ठ ७०९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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