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________________ नियमसार गाथा ८७ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि माया, मिथ्यात्व और निदान - इन शल्यों से रहित मुनिराज स्वयं प्रतिक्रमणस्वरूप ही हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दुसाहु परिणमदि। सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८७।। (हरिगीत ) छोड़कर त्रिशल्य जो निःशल्य होकर परिणमे। प्रतिक्रमणमय है इसलिए वह स्वयं ही प्रतिक्रमण है।।८७|| जो साधु शल्यभाव को छोड़कर निःशल्यभाव से परिणमित होता है, उस साधु को प्रतिक्रमण कहा जाता है; क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ निःशल्यभाव से परिणमित महातपोधन को ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा है। निःशल्यस्वरूप परमात्मा के यद्यपि व्यवहारनय के बल से कर्मरूपी कीचड़ के साथ संबंध होने से मिथ्यात्व, माया और निदान नामक शल्य वर्तते हैं - ऐसा उपचार से कहा जाता है; तथापि ऐसा होने से ही जो परमयोगी तीन शल्यों का परिहार करके परमनिःशल्यस्वरूप में रहता है। उसे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है। क्योंकि उसे स्वरूपगत वास्तविक प्रतिक्रमण तो है ही।" इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “पर का मैं कर सकता हूँ, शुभराग से धर्म होता है - ऐसी विपरीत मान्यता मिथ्यात्वशल्य है, कार्य का फल भोगूं – यह निदानशल्य है, कपट सेवन करना माया शल्य है। इसप्रकार तीन भाँति की शल्यों को
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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