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________________ ३५ गाथा ८७ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञानी धर्मात्मा विद्वानों और वीतरागी सन्तों को तो निरन्तर शुद्धात्म भावनारूप ही परिणमित होना चाहिए । तात्पर्य यह है कि ज्ञानी धर्मात्मा विद्वान और सन्त तो निरन्तर शुद्धात्मभावनारूप ही परिणमित होते हैं ।।११६।। दूसरा छन्द इसप्रकार है - (पृथ्वी) कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान् भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः । स्वभावनियतंसुखं विधिवशादनासादितं भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेीतितः ।।११७ ।। (कुण्डलिया ) अरे कषायों से रंगा भव का हेतु अजोड़। कामबाण की आग से दग्ध चित्त को छोड़। दग्ध चित्त को छोड़ भाग्यवश जो न प्राप्त है। ऐसा सुख जो निज आतम में सदा व्याप्त है। निजस्वभाव में नियत आत्मरस माँहि पगा है। उसे भजो जो नाँहि कषायों माँहि रंगा है।।११७॥ भवभ्रमण के कारण, कामबाण की अग्नि से दग्ध एवं कायक्लेश से रंगे हुए चित्त को हे यतिजनो ! तुम पूर्णत: छोड़ दो और भाग्यवश अप्राप्त, निर्मल स्वभावनियत सुख को तुम संसार के प्रबल डर से भजो। इस कलश में यतिजनों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि कामबाण की अग्नि से दग्ध अर्थात् कामवासना में संलिप्त और कायक्लेश से रंजित अर्थात् शारीरिक क्रियाकाण्ड में उलझे हुए स्वयं के चित्त को दूर से ही छोड़ देना चाहिए; क्योंकि इसप्रकार की वृत्ति संसार परिभ्रमण का कारण है । तात्पर्य यह है कि कामवासनारूप अशुभभाव और क्रियाकाण्ड में संलग्न शुभभावरूप अशुद्धभाव सांसारिक बंधन के कारण हैं। इनसे बचना चाहिए। तथा दुर्भाग्यवश जो अबतक अप्राप्त रहा है, ऐसा जो निर्मल स्वभावजन्य सुख है, प्रबल संसार के भय से भयभीत हो, उसे भजना चाहिए, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।।११७॥ .
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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