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________________ नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "आत्मा के भानसहित एकाग्रता करना, वह प्रतिक्रमण है। कोई तिर्यंच सम्यग्दृष्टि हो, तथापि वह समझता है कि मैं पशु की अवस्थारूप नहीं हूँ; वह शरीर को जड़ की पर्याय समझता है, अपना स्वरूप नहीं मानता । इसीप्रकार धर्मीजीव मनुष्य हो या देव हो, तो भी वह समझता है कि मैं तीन काल के भवरहित हूँ - मैं तो ज्ञाता चैतन्यस्वरूप हूँ।' __सम्यग्दृष्टि जीव समझता है कि मैं तो अखण्ड ज्ञायकस्वभावी हूँ। गति आदि मार्गणास्थान के भेद, एक से लगाकर चौदह गुणस्थान तक के भेद, पंचेन्द्रिय आदि जीवस्थान के भेद मैं नहीं हूँ; उन भेदों का कर्ता, प्रेरक या अनुमोदक नहीं हूँ। वे भेद तो व्यवहारनय के विषय हैं, निश्चयदृष्टि उन भेदों को नहीं स्वीकारती। ___ आठ वर्ष के बालक-बालिका भी सम्यक्त्वाधिकारी हैं। वे मानते हैं कि मैं बालक नहीं हूँ। शरीर जड़ है। उसकी अवस्था जड़ के कारण होती है, मेरे कारण नहीं होती। मैं तो ज्ञानस्वभावी हूँ। धर्मीजीव मानता है कि शरीर की किसी भी अवस्था का मैं कर्ता नहीं, करानेवाला नहीं, अनुमोदक नहीं हूँ। युवावस्था हो तो धर्म हो और वृद्धावस्था में धर्म न हो, यह बात उसे स्वीकार नहीं, वह मानता है कि मेरी धर्मदशा तो मेरे चैतन्यस्वभाव के आधार से है। ___ यहाँ कोई शंका करे कि शास्त्रों में ऐसा कथन आता है कि जबतक 'इन्द्रियाँ शिथिल न पड़ें, वृद्धावस्था न आवे, रोग-व्याधि न घेरे; तब तक धर्म कर लेना चाहिए' - इसका क्या अर्थ है ? समाधान - भाई ! उपदेश के वचन ऐसे ही होते हैं। उनमें छुपा हुआ रहस्य कुछ भिन्न ही होता है। यदि वह रहस्य न समझे तो घोटाला हो जाता है । वे सब निमित्त के कथन हैं, जीव का पुरुषार्थ जागृत कराने १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६३९ २. वही, पृष्ठ ६४०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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