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________________ गाथा ७७-८१ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार चित्शक्तिमय, सहजदर्शन के स्फुरण से परिपूर्ण मूर्ति और स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज यथाख्यातचारित्रवाले मुझे समस्त संसारक्लेश के हेतु क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं हैं। अब इन विविध विकल्पों से आकुलित विभावपर्यायों का निश्चय से मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ और पुद्गल कर्मरूप कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। ____ मैं नारकपर्याय को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता (चेतता) हूँ। मैं तिर्यंचपर्याय को नहीं करतो; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। मैं मनुष्यपर्याय को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। मैं देवपर्याय को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हैं। मैं चौदहमार्गणा के भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। ____ मैं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान भेदों को नहीं भाता; मैं तो सहज चैतन्य विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। ___मैं एकेन्द्रियादि जीवस्थान भेदों को नहीं भाता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। ___ मैं शरीरसंबंधी बालकादि अवस्था भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। ___ मैं रागादि भेदरूप भावकर्म के भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। मैं तो भावकर्मात्मक चार कषायों के भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ। इसप्रकार पाँच रत्नों के शोभित कथनविस्तार के द्वारा सम्पूर्ण विभाव पर्यायों के संन्यास का विधान कहा।"
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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