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________________ गाथा ७७-८१ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार के लिए उपदेश के वचन हैं। धर्म शरीर से नहीं होता, किन्तु शुद्धचैतन्यस्वभाव के आश्रय से होता है। पंचमहाव्रतादि का अथवा द्वादशव्रत का राग हो या अशुभभाव का राग हो; वह सब एक समय की पर्याय में है, शुद्धस्वभाव में नहीं। सम्यक्त्वीजीव राग को अपना स्वरूप नहीं मानता, युद्ध के समय में द्वेष के परिणाम होने पर भी उस द्वेष को अपना स्वरूप नहीं मानता; पर में सावधानी का भाव मोह है, उसको धर्मीजीव अपना स्वरूप नहीं मानता। क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम पर्याय में होते हैं, स्वभाव में नहीं; अतः धर्मीजीव उन परिणामों का कर्ता नहीं है, करानेवाला नहीं है, अनुमोदना करनेवाला भी नहीं है। / पर्याय में होनेवाले राग-द्वेषादि परिणाम को गौण करके स्वभावदृष्टि कराने के लिए शुद्ध आत्मा में उनका अभाव कहा है।' विकार के परिणाम एक समय की पर्याय में होते हैं, तथापि भेद का आश्रय छुड़ाकर तथा राग को गौण करके व्यवहार कहकर अभूतार्थ कहा है और शुद्धस्वभाव को भूतार्थ कहा है। .. ___ यहाँ टीका में जैसे कर्ता के विषय में वर्णन किया है, वैसे ही आत्मा भेदों का करानेवाला तथा यह भेद पड़े तो ठीक, इसप्रकार अनुमोदन करनेवाला भी नहीं है। किसी भी भेद को करना, कराना या अनुमोदन करना वस्तुस्वभाव में है ही नहीं, इसलिए धर्मीजीव स्वभाव की एकाग्रता को भाता है। इसप्रकार पाँच रत्नों के शोभित कथन-विस्तार द्वारा सकल विभावपर्यायों के त्याग का विधान कहा है । यह प्रतिक्रमण की बात है, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६४१ २. वही, पृष्ठ ६४१ ४. वही, पृष्ठ ६४२ ३. वही, पृष्ठ ६४२ ५. वही, पृष्ठ ६४३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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