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________________ जैन धर्म का स्वरूप जो सुख चाहे आपना तज दे विष की वेल 1 पर में निज की कल्पना यही जगत का खेल ॥ यदि तुम अपना सुख चाहते हो तो पर वस्तु के प्रति अपने ममत्व को, जो विष की लता के समान है, छोड़ दो। पर वस्तु में ममत्व का भाव होने से ही संसार का खेल चलता रहता है। जब तक मन में बसत है पर पदार्थ की चाह । तब लग दुख संसार में चाहे होवे शाह ॥ जब तक मन में पर पदार्थ की चाह बसी हुई है तब तक संसार में दुःख लगा रहता है, भले ही कोई शहंशाह भी क्यों न हो । समय गया नहिं कुछ किया नहिं जाना निज सार । परपरणति * में मग्न हो सहते दुःख अपार ॥ 39 जीवन का समय यों ही बीत गया। अपने कल्याण के लिए कुछ भी नहीं कर सके, अपनी असलियत को समझे ही नहीं! जीवनभर अपने से भिन्न पदार्थों की बातों में मग्न रहे। ऐसे जीवों को अपार दुःख सहना पड़ता है। पर में आपा मानकर दुःखी होत संसार । ज्यों परछाहीं श्वान लख भोंकत बारम्बार ॥ जो अपने से भिन्न है उसमें अपनेपन की कल्पना कर संसार दुःखी हो रहा है, जैसे शीशे में अपनी परछाई देखकर कुत्ता उसे अपने जैसा ही कुत्ता समझकर उसकी ओर बार-बार भौंकता रहता है । (इस प्रकार वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति और समय को बरबाद कर परेशान होता रहता है और नाहक भौंक-भौंककर दूसरों को भी तबाह करता है ।) यह संसार महा प्रबल या में वैरी दोय । पर में आपा कल्पना आप रूप निज खोय ॥ * दूसरों की स्थिति या अवस्था
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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