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________________ 38 कब आवे वह सुभग दिन जा दिन होवे सूझ । पर पदार्थ को भिन्न लख होवे अपनी बूझ ॥ कब वह सौभाग्यशाली दिन आयेगा जब हमें (सचाई की) सूझ होगी और हम 'पर' (आत्मा से भिन्न) पदार्थों को अपने से भिन्न समझकर अपने- आपका ज्ञान प्राप्त करेंगे ? आत्म-ज्ञान पाये बिना भ्रमत सकल संसार । इसके होते ही तरे भव दुख पारावार * ॥ आत्म ज्ञान (अपनी आत्मा का ज्ञान ) पाये बिना सारा संसार भटक रहा है। आत्मज्ञान के होते ही मनुष्य संसार - सागर के दुःख से पार हो जाता है । भव-बन्धन का मूल है अपनी ही वह भूल । या के जाते ही मिटे सभी जगत का शूल ॥ जैन धर्म : सार सन्देश अपने स्वरूप को न जानने की वह भूल ही सांसारिक बन्धन का मूल कारण है। इस भूल के दूर होते ही संसार के सभी दुःख मिट जाते हैं । जो चाहत निज वस्तु तुम पर को तजहु सुजान । पर पदार्थ संसर्ग से कभी न हो कल्याण ॥ ज्ञानीजन ! यदि तुम अपनी वस्तु को प्राप्त करना चाहते हो तो पर (अपने से भिन्न) पदार्थों को छोड़ो। पर पदार्थों से लगाव रहने पर तुम्हारा कल्याण कभी भी नहीं हो सकता । हितकारी निज वस्तु है पर से वह नहिं होय । पर की ममता मेंटकर लीन निजातम होय ॥ अपनी ही वस्तु (आत्मा) कल्याणकारी है, पर वस्तुओं से अपना कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए पर वस्तुओं के प्रति अपने ममत्व को मिटाकर हमें अपने को अपनी आत्मा में ही लीन करना चाहिए । * समुद्र, सागर
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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