SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म : सार सन्देश इस संसार का बन्धन बहुत ही मज़बूत है, क्योंकि इसमें दो बड़े ही बलवान् शत्रु हैं: एक है अपने स्वरूप को भुला देना और दूसरा है अपने से भिन्न वस्तु में अपनत्व की कल्पना करना। जो सुख चाहत हो सदा त्यागो पर अभिमान । आप वस्तु में रम रहो शिव-मग सुख की खान॥ यदि तुम सदा के लिए सुख-चाहते हो तो अपने से भिन्न पदार्थ में अपनत्व की भावना का त्याग करो और अपने को अपनी ही आत्मा में लीन कर लो। यही कल्याण का मार्ग और सुख का भण्डार है। सबसे सुखिया जगत में होता है वह जीव। जो पर सङ्गति परिहरहि ध्यावे आत्म सदीव॥ संसार में वही जीव सबसे सुखी होता है जो अपने से भिन्न की संगति का त्याग कर सदा आत्मा के ही ध्यान में लगा रहता है। राग द्वेष मय आत्मा धारत है बहु वेष। तिन में निज को मानकर सहता दुःख अशेष ॥ अपने से भिन्न पदार्थों के प्रति राग और द्वेष की भावना रखने के कारण ही आत्मा को विभिन्न योनियों में अनेक रूप धारण करने पड़ते हैं। इस प्रकार अपने से भिन्न पदार्थों में अपनत्व की कल्पना करने के कारण आत्मा को अनन्त दुःख सहने पड़ते हैं। आज घड़ी दिन शुभ भई पायो निज गुण धाम। मन की चिन्ता मिट गई घटहिं विराजे राम॥ / .. आज का समय और दिन (यह जीवन-काल) जबकि मैंने आत्म-गुणों और आत्म-धाम को प्राप्त कर लिया है, मेरे लिए शुभ या कल्याणमय बन गये हैं। अब मेरे मन की चिन्ता दूर हो गयी है और मेरे अन्दर परमात्मा विराज रहे हैं। * कल्याण का मार्ग
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy