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________________ इसी प्रकार हे देवानुप्रिय, भगवान महावीर संसारिक जनों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख करते हैं । वे मिथ्यात्व और कर्मान्धकार को नष्ट करके सद्धर्म का प्रतिबोध देते हैं, अतः महाधर्मी - कर्मी हैं । वे संसार-सागर में डूबने वाले प्राणियों को धर्म नौका द्वारा निर्वाण तट पर पहुंचाते हैं, इसलिए महानियामक हैं। गोशालक के मुंह से भगवान महावीर की कपट पूर्ण प्रशंसा सुनकर शकडाल को प्रसन्नता हुई, क्योंकि वह यह नहीं जानता था कि गोशालक ने भगवान की प्रशंसा कपट से की है। प्रसन्न होकर उसने कहा -- आपने चूंकि भगवान का प्रतीकों के माध्यम से बड़ा सुन्दर गुणानुवाद किया है। अतः मैं आपको प्रतिहारिक, पीठ, फलक, शय्या आदि के लिए आमन्त्रित करता हूं । इसके बाद शकडाल पुत्र ने गोशालक से पूछा - "क्या आप भगवान महावीर से शास्त्रार्थ कर सकते हैं ? उत्तर में गोशालक ने असमर्थता प्रकट की और कुछ दिन शकडालपुत्र के आवास पर रहकर उसकी आस्था में परिवर्तन करने का प्रयास किया, पर शकडालपुत्र महावीर के विचारों का अचल उपासक बना रहा । अपने उद्देश्य में विफल होकर गोशालक पोलासपुर से अपने अनुयाइयों के साथ चला गया। चौदह वर्ष तक श्रावकचर्या का पालन करने के बाद शकडालपुत्र ने पूरी तरह पौषधशाला में निवास ले लिया। घर व्यापार की सब जिम्मेदारियां अपने बड़े पुत्र को सौंप दी और खुद श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं, कायोत्सर्ग आदि द्वारा धर्मपालन में लीन हो गया। एक बार शकडालपुत्र पौषधशाला में कायोत्सर्ग साधना कर रहा था । मिथ्या दृष्टि देव ने उसे विचलित करने के अनेक उपाय किए पर शकडाल कायोत्सर्ग से विचलित नहीं हुआ । इसपर देव ने तीनों पुत्रों के उसी के सामने टुकड़े-टुकड़े कर दिए। खौलता हुआ तेल शकडालपुत्र की देह पर डाला । लेकिन धर्म धीर शकडाल पुत्र विचलित नहीं हुआ । अन्त में देव शकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा को घसीटता हुआ लाया। पत्नी की रक्षा करना न केवल मेरा कर्तव्य ही है, अपितु लोकधर्म का पालन भी है, यह सोच शकडालपुत्र देव के पीछे दौड़ा। उसके हाथ में अग्निमित्रा की जगह एक खम्बा आ गया और देव लुप्त हो गया। यद्यपि यह सब भ्रम मात्र था; फिर भी पत्नी की प्रेरणा से कडाल पुत्र ने क्रोध के लिए प्रायश्चित्त किया। शुद्ध होकर फिर से साधना में लग गया। अन्त में सत्यान्वेषी शकडालपुत्र / 53
SR No.007103
Book TitleMahavir Ke Upasak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherMuni Mayaram Sambodhi Prakashan
Publication Year1993
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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