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________________ 7 भगवतीस्त्रे चत्कालपर्यन्तमे सर्वार्थसिद्धदेवगतिं मनुष्यगतिं च सेवेत तथा एतावन्तं कालं सर्वार्थसिद्धगत मनुष्यगतौ च गमनागमने कुर्यादिति प्रथमो गमः | १ | 1 द्वितीयगमं दर्शयन्नाह - 'सो चे' इत्यादि, 'सो चे जहनकाळ डिएस उबवो' स एव सर्वार्थसिद्धदेव एव जघन्यकाल स्थिति मनुष्येषु उत्पन्नो भवेत तदा- 'एस चैव वत्तध्वया' एषा एव वक्तव्यता- एषः - मयमगमप्रदर्शित - प्रकार एव उत्पाद परिमाणादिद्वार समुदायेन वक्तव्य इति । अन्यत्सर्वं प्रथमगमदेव वक्तव्यम् परन्तु काय संवेधां वैलक्षण्यं विद्यते तदेव दर्शयति नवरं इत्यादिना । 'नबरं कालादेसेणं जहमेणं तेतीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तममहियाइ' नवरं कालादेशेन काळापेक्षयेत्यर्थः जयन्येन त्रयत्रिंशत्याग सेपमाणि वर्षापत्रिकानि तथा'उक्को से वि तेतीस सागरोत्रमा बास हुतमन्दवाई उत्कर्षे गाव पि , इयं जात्र करेज्जा' इस प्रकार वह जीव इतने काल तक सर्वार्थ सिद्ध देवगति का और मनुष्यगति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है । १ इस प्रकार यह पहला गम है । द्वितीय गम इस प्रकार से है- 'सो चेव जहन्न कालट्ठिएल जव बन्नो' वही सर्वार्थ सिद्ध देव जय जघन्य काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तब 'एस चैव वक्तव्या' उस गम में भी यही प्रथम गम प्रदर्शित प्रकार उत्पाद परिमाण आदि द्वार समूह से कहना चाहिये । अर्थात् यहां की वक्तव्यता प्रथम गमोक्त वक्तव्यता के जैसी है । परन्तु 'नवरं कालादे से पां जहन्ने तेसीसं सागरोवमा बासममहिया, उक्कोसेण वि तेत्तीस सागरोत्रमा बासपुहुत्तममहिया" काय संवेधांश में इस कथन के अनुसार ऐसी विलक्षणना है कि यहां का संवेध काल की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट से वर्ष पृथक्त्व સિદ્ધ દેવ ગતિનું અને મનુષ્ય ગતિનું સેત્રન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમના ગમન કરે છે. એ પ્રમાણે આ પહેલે ગમ છે. ૧ थीले गम खा प्रभा छे. 'सो चेव जइन्न कालट्ठिइरसु उववन्ना' से ४ સર્વાર્થ સિદ્ધ દેવ યારે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા મનુષ્યામાં ઉત્પન્ન થાય छे. त्यांरे 'एस चैव वत्तव्वया' ते गभसां पशु भा पहेला गभमां उस પ્રકારથી ઉત્પાત, પરિમાણુ વિગેરે દ્વારાનું કથન કહેવુ' श्रील गम संबंधी प्रथन पहेला गभमा उद्या प्रभानु छे. परंतु 'नवर' कालादेसेणं जहन्नेणं वेत्तीसं सागरोवमाइ वासपुहुत्तमम्भहियाई उक्कोसेण त्रि तेत्तीसं सामरोवमाई' अयसवेधसां मथन प्रभावु विलक्षपायें छे જોઈએ. અર્થાત્ આ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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