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________________ .. . प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ ३.२१ १०२ आनतादिदेवेभ्यः मनुष्येषूत्पत्तिः ४०१ शरसागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्वाम्यधिकानि, वर्षपृथक्त्वरूपजयन्यकालस्थितिक मनु. ज्येषत्पमत्वेन जघन्यस्थितिकमनुष्यायुः संमेल्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिाये. तिमावः । एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं यावत् कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं सी. र्थसिद्धदेवगति मनुष्यगतिं च सेवेत, तथा एतावन्तं कालं यावत् सर्वार्थसिदमतों मनुष्यमतौ च गमनागमने कुर्यादिति द्वितीयो ममः २ । 'सो चेव उक्कोसकाला हिइएसु उपवनो' स एव सर्वार्थसिद्ध देव उत्कृष्ट कालस्थितिकमनुष्येषु उत्पधेत तदा-'एस चेव क्त्तव्वया' एषैव वक्तव्यता, एषा प्रथमगमप्रदर्शितपकारैव व्यवस्था अवगन्तव्येति । केरलं कायसंवेोशे लक्षण्यं तदेव दर्शयति-'नवरं' इत्यादिना। अधिक ३३ सागरोपम का है। यहां जो कायसंवेध के काल में वर्षपृथक्त्व अधिकता कही गई है वह वर्षपृथक्त्व रूप जघन्य मनुष्य भव की आयु के संमेलन से कही गई है। क्योंकि वह वर्ष पृथक्त्व रूप जघन्य आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है। 'एवयं जोव करेज्जा' इस प्रकार से वह जीव इतने काल पर्यन्त सर्वार्थ सिद्ध देवगति का और मनुष्यगति का सेवन करता है और इतने काल पर्यन्त वह उस गति में गमनागमन करता है। ऐसा यह द्वितीय गम है ॥२॥ ___ 'सो चेव उक्कोसकालटिइएसु उवचन्नो जब वह सर्वार्थसिद्ध देव ही उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तब भी 'एस चेव वत्तव्यया' यही प्रथम गमोक्त वक्तव्यता वहां कह लेनी चाहिये। केवल कायसंवेधांश में विलक्षणता है-यही बात-'नवरं કે-અહિયાં કાયવેધ કાળની અપેક્ષાથી જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી વર્ષ પૃથ. કવ અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમને છે, અહિયાં કાયસંવેધના કાળમાં જે વર્ષ પ્રથકૃત્વ વધારે કહેલ છે, તે વર્ષ પૃથફતવ રૂપ જઘન્ય મનુષ્ય ભવની આયુષ્યને મેળવીને કહેલ છે. કેમકે-તે વર્ષ પૃથકત્વ રૂપ જઘન્ય આયુષ્યवाला मनुष्यामा उत्पन्न थये। छे. 'एवइयं जाव करेज्जा' मारीत त ७१ આટલા કાળ સુધી સર્વાર્થ સિદ્ધ દેવગતિનું અને મનુષ્ય ગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમના ગમન કરે છે એ રીતે આ બીજે ગમ કહ્યો છે. રા सो चेव उक्कोसालदिइएसु उत्रवन्नो' ल्यारे ते साथ सिद्ध । Get स्थितिमा भनुष्यामा ५न्न थाय छे, त्यारे ५५ 'एस र उत्तध्वया' मा पसा आममा ४ प्रभातु ॥ ४थन महियां नये. Bam अयस वधना समयमा सक्षY ५५ छे. मेलात 'नवरं काला શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫
SR No.006329
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages969
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size57 MB
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