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________________ ९३८ आचारांगसूत्रे घृतेन वा, वसया वा द्रव्यौषधिविशेषेण 'मक्खिज्ज वा अभिगिज वा' म्रक्षयेद्वा परिमर्दनं कुर्यात् , अभ्यञ्जयेद्वा अभ्यञ्जनं कुर्याद्वा ताह 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-म्रक्षयन्तमभ्यञ्जयन्तम् गृहस्थम् आस्वादयेत्-मनसा अभिलषेत् नो तम् म्रक्षयन्तम् अभ्यञ्जयन्तम् गृहस्थं नियमयेत्-कायेन वचसा वा अनुमोदयेत्-'से सिया परो पायाई' तस्य-भावभिक्षुकस्य स्यात्-यदि कदाचित् परो-गृहस्थः पादौ 'लुद्धेण वा को कदाचित् पर अर्थातू गृहस्थ श्रावक तैल से या 'घएण वा वसाए वा घृत से या, वसा अर्थात द्रव्यौषधि विशेष से 'मक्खिज्ज वा' म्रक्षण अर्थात् परिमर्दन या मालिश करे या 'अभिंगिज वा' अभ्यञ्जन करे तो उस की अर्थात् तैलादि से पाद का मर्दन और अभ्यञ्जन की जैन साधु अभिलाषा नहीं करें 'नो तं सायए' मन से उस की इच्छा नहीं करें और 'नो तं नियमे वचन से तथा शरीर से भी उस का अनुमोदन नहीं करें, एतावता साधु के चरणों को तैल घृतादि से मालिश करते हुए उस गृहस्थ श्रावक को मन वचन कर्म से समर्थन नहीं करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जाते हुए पादादि का तैल घृतादि से मर्दन अभ्यञ्जन कर्मबन्ध का कारण होता हैं इसलिये सांसारिक कर्मबन्धों से छुटकारा पाने के लिये प्रव्रज्या दीक्षा ग्रहण करनेवाले साधु को उक्त मनादि क्रिया रूप परक्रिया का स्वीकार नहीं करना चाहिये और अनुमोदन या समर्थन भी नहीं करना चाहिये। ____ अब फिर भी प्रकारान्तर से गृहस्थ द्वारा साधु के पादादि का पिष्टकादि द्रव्यों से उदवर्तन करे तो उस को भी साधु स्वीकार नहीं करें यह बतलाते हैं'से सिया परो पायाइं लुद्धेण वा' उस जैन साधु के पादों को यदि कदाचित् वसा अर्थात् यौषधि विशेषयी 'मक्खिज्ज वा' प्रक्ष अर्थात् भालीअथवा 'अभिगिज्ज वा' अन्य ४२ ते 'नो तं सायए नो तं नियमे तेनी मेट तेस વિગેરેથી પાદમર્દન અને અત્યંજનની સાધુ કે સાકવીએ અભિલાષા કરવી નહીં. તથા મનથી પણ તેની ઈચ્છા કરવી નહીં તથા વચનથી અને શરીરથી પણ તેનું અનુમોદન કરવું નહીં. કહેવાને હેતુ એ છે કે-સાધુના પગનું તેલ કે ઘીથી માલીશ કરતા એ ગૃહસ્થ શ્રાવકને મનવચન અને કર્મથી સમર્થન કરવું નહીં કેમ કે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા આ રીતે કરવામાં આવતા પગ વિગેરેનું તેલ કે ઘી વિગેરેથી મર્દન–માલીસ કે અભંજન કર્મબંધનું કારણ થાય છે તેથી સાંસારિક કર્મબંધથી છુટકારો મેળવવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરનારા સાધુએ એરીતની મઈનાદિ ક્રિયારૂપ પરક્રિયાને સ્વીકાર કરવો નહીં. તેમજ અનુમોદન કે સમર્થન પણ કરવું નહીં. હવે પ્રકારાન્તરથી ગૃહસ્થ દ્વારા સાધુના પગવિગેરેનું લેટવિગેરે પદાર્થોથી ઉદ્વર્તનને पीर साधु न ४२१। विष सूत्र४२ ४थन रे छ.- ‘से सिया परो पायाई लुद्धेण वा' श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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