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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १ अ. १३ परक्रियानिषेधः कक्केग वा' लोघेण वा-पिष्टकद्रव्येण कर्केण वा-स्नानीयद्रव्यविशेषेण वा 'चूण्णेण वा वण्णेण वा' चूर्णेन वा-गोधूमादि चूर्णद्रव्यविशेषेण वर्णन वा-कुङ्कमादि वर्णविशेषेण (पा. ३३२) आदि 'उल्लोढि ज वा उव्वलिज्ज वा' उल्लोलयेद् वा-संसृष्टौ कुर्याद् , उद्वर्तनं वा कुर्यादित्यर्थः तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' नो तम्-उद्वर्तयन्तं गृहस्थम् नियमयेत्-मनसा अभिलपेत् नो वा तम् उद्वर्तयन्तं गृहस्थम् आस्वादयेद् 'कायेन वचसा वा अनुमोदयेत्, तस्य गृहस्थस्य उद्वर्तनादि क्रियाम् मनसा वचसा वपुषा वा पर-गृहस्थ श्रावक श्रद्धाभक्ति के कारण लोन द्रव्य से अर्थात् पिष्टक द्रव्य से या 'कक्केण वा चुण्णेण वा' कर्क अर्थात् स्नानीय द्रव्य विशेष से या चूर्ण अर्थात् गोधूमादि चूर्ण द्रव्यविशेष से या 'वण्णेण वा' वर्ण अर्थात् कुङ्कुमादि वर्ण वि. शेष से या पाउडर वगैरह से 'उल्लोढिज्ज वा' संमृष्ट करे या 'उव्वलिज वा' उदवर्तन करे तो उस उद्वर्तनादि परक्रिया को 'नो तं सायए' जैन साधु मन से आस्वादन नहीं करें अर्थातू उस लोध्रादि द्रव्यों से पादों के उदवर्तनादि की मन से अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे' वचन तथा काय से उस का अनुमोदन या समर्थन भी नही करें क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावकों द्वारा किया गया पादों के पिष्टकादि द्रव्यों से उद्वर्तनादि परक्रिया कर्मबन्धन का हेतु मानी जाती हैं इसलिये सांसारिक कर्मबन्धनों से छुटकारा पाने के लिये दीक्षा प्रव्रज्या ग्रहण करनेवाले जैन साधु मुनि महात्माओं को इस प्रकार गृह स्थ श्रावकों द्वारा किये जाने वाले पिष्टक चूर्ण द्रव्यों से पादों के उद्वर्तनादि को मन से अभिलाषा नहीं करनी चाहिये और वचन से तथा शरीर से उस उद्वर्तनादि परक्रिया का अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये। એ સાધુના પગને જે કદાચ પર અર્થાત્ ગૃહસ્થ શ્રાવક શ્રદ્ધાભકિતને લઈ લેધ દ્રવ્યથી मात वाट विगैरेथी मथ। 'कक्केण वा ४४ अर्थात् नाबाना विशेष ना पहाय थी अथवा 'चुण्णेण वायू थी यू हाथ थी मेटले ५।१७२ विगैरथी मया 'वण्णेण वा' पए अर्थात् विगेरे १५ विशेषयी 'उल्लोढिज्ज वा उव्वलिज्ज वा' ससष्ट ४२ मथ। समाव वतन ता मे ना ५२यानी जैन साधुसे 'नो तं सायए नो तं नियमे મનથી તેનું આસ્વાદન કરવું નહીં અર્થાત્ એ લેધાદિ પદાર્થોથી પગ વિગેરેના ઉદ્વર્તન વિગેરેની મનથી અભિલાષા કરવી નહીં. તથા વચન અને કાયાથી તેનું અનુમેદનકે સમર્થન પણ કરવું નહીં. કેમકે આ પ્રકારના ગૃહસ્થ શ્રાવકે દ્વારા કરવામાં આવતા પિષ્ટકાદિ પદાર્થોથી ઉદ્વર્તાનાદિ પરક્રિયા કર્મબંધને હેતુ મનાય છે. તેથી સાંસારિક કર્મ બંધનેથી છુટકારો મેળવવા દીક્ષા ગ્રહણ કરવાવાળા સાધુમુનિ મહારાજાઓએ આ રીતે ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા પિષ્ટક વિગેરે ચૂર્ણાદિ દ્રવ્યથી ઉદ્વર્તનાદિની મનથી અભિલાષાકરવી નહીં. તેમજ વચનથી શરીરથીએ ઉદ્વર્તનાદિ પરક્રિયાનું અનુમોદન કરવું નહીં श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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