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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू० १ अ. १३ परक्रियानिषेधः ९३७ फुसिज्ज वा रइज्ज वा' तस्य-साधोः स्यात्-कदाचित् परः- गृहस्थः पादौ स्पर्शयेद् वा रञ्जयेद् वा 'नो तं सायए' नो-नैव किल तम्-पादौ स्पर्शयन्तं रञ्जयन्तं वा गृहस्थम् साधुः आस्वादयेत्-मनसा नाभिलषेत् , 'नो तं नियमे नो-नैव खलु तम्-गृहस्थम् पादौ स्पर्शयन्तं रञ्जयन्तं वा कायेन वचसा वा नानुमोदयेत् ॥ 'से सिया परो पायाई तिल्लेण वा घएण वा वसाए वा' तस्य-भावसाधोः स्यात्-कदाचित् परो-गृहस्थः पादौ तैलेन वा, का साघु और साध्वी को अनुमोदन नहीं करना चाहिये इसी तरह से सिया परो पायाई फुसिज्ज वा रइज्ज वा' उस प्रतिकर्म रहित शरीरवाले साधु के पादों का स्पर्शन और अनुरञ्जन यदि कदाचित् कोई गृहस्थ श्रावक करे तो 'नो तं सायए' उस गृहस्थ श्रावक के द्वारा किये जाते हुए साधु के पादों के स्पर्शन और रञ्जन क्रिया रूप परक्रिया को जैन मुनि महात्मा मन से अभिलाषा नहीं करें और 'नो तं नियमे उस गृहस्थ श्रावक के द्वारा श्रद्धा भक्ति से किये जाते हुए साधु के पादों का स्पर्शन और रञ्जन रूप परक्रिया का वचन काय से भी अनुमोदन नहीं करें क्योंकि उक्त रीति से पाद स्पर्शादि कर्मबन्ध का कारण माना जाता हैं इसलिये उस का मन वचनकाय से समर्थन नहीं करना चाहिये क्योंकि जैन मुनि महात्माओंने कर्मबन्धों से छुटकारा पाने के लिये प्रवज्या या दीक्षा संयम का ग्रहण किया हैं इसलिये कर्मबन्ध का हेतुभूत पादस्पर्शनादि का समर्थन नहीं करना चाहिये । उक्त रीति से यदि गृहस्थ श्रावक साधु मुनि महात्माओं के चरणों का तैलादि से मालिश करे तो जैन साधु एवं साध्वी उस का अनुमोदन नहीं करें यह बतलाते हैं-'से सिया परो पायाई तिल्लेण वा' यदि उस जैन साधु के पादों શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા પાદસંવાહન કે પાદસંમઈન કિયાનું સાધુ કે સાલવીએ मनमोहन ४२ नही प्रभारी से सिया परो पायाई फुसिज्ज वा रइज्ज वा' से પ્રતિકર્મ વિનાના શરીરવાળા સાધુના પગોને સ્પર્શ અને અનુરંજન જે કદાચ કેઈગૃહસ્થ શ્રાવક કરે તે એ ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા કરવામાં આવતા સાધુના પગનું સ્પર્શન અને मनु२४ ३५ ५२याने भुनिय भनथी 'नो तं सायए' ममिला। ४२वी नही भने ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા શ્રદ્ધાભક્તિથી કરવામાં આવતા સાધુના પગોને સ્પર્શ અને અનુરંજનરૂપ यानु 'नो तं नियमे' क्यन भने यथी मनुभाहन ५ ४२ नही भ3 Sxa Rथी પાદસ્પશદિ કર્મબંધનું કારણ માનવામાં આવે છે. તેથી તેને મનવચન અને કાયાથી સમર્થન કરવું નહીં કેમકે મુનિમહારાજએ કર્મબંધથી છૂટવા માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરેલ છે તેથી કર્મબંધના હેતુભૂત પાદસ્પર્શનાદિ ક્રિયાનું સમર્થન કરવું નહીં ઉકત પ્રકારથી જે ગૃહસ્થ શ્રાવક સાધુઓના પગોને તેલ વિગેરેથી માલીશ કરેતે મુનીમહારાજેએ તેનું मनुमोहन न ४२१। विषे ४थन ४२ छ,-'से सिया परो पायाई तिल्लेण वा' ने साधुन। ५ो य मर्थात् २५ श्राप तथा मा 'घएण वा' धौथी मथवा 'वसाए वा' आ. ११८ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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