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________________ आचारांगसूत्रे ८२ संघट्टनं स्यादित्यर्थः । एवं 'कारण वा काए संखोभियपुग्वे भवइ' एकस्य चरकस्य कायेन अपरस्य शाक्यस्य कायः सक्षोभितपूर्णं भवति, तथा च परस्परकायसंक्षोभेण शाक्यादिः कुपितः सन् कलहं कुर्यात, कुपितेन च शाक्यादिना 'दंडेण वा मुट्ठीणा वा लेलुणा वा कवालेण वा अभियपुग्ने भवइ' दण्डेन वा यष्टिना, मुष्टिना वा लेष्टुना वा लोष्ठेन, कपालेन वा अभिहतपूर्वो भवति, भिक्षाग्रहणात्पूर्वम् साधुः अमिहतो भवेत, एवं 'सीओदएण वा उस्सित्तपुवे भवई' शीतोदकेन वा सचित्तशीतोदकेन साधुः उतिसक्तपूर्वो भवति, सचित्तजलेन श्रमणः उत्सितः स्यात्, कश्चित् शाक्यादिः कश्चित् साधु शीतोदकेन सिञ्चदित्यर्थः । 'रयसा वा परिघासियपुब्वे भवई' रजसा वा परिघर्षितपूर्वो भवति, सचित्तधूलिरूपपार्थिवरजः कणेन साधुः परिघर्पितः स्यात्, इत्येते तावत् संकीर्णदोषाः प्रतिपादिताः, अथ अवमदोषान् प्रतिपादयितुमाह 'असणिज्जे वा परिभुत्तपुब्वे भवई' अनेषणीयं वा अप्रासुकं पहले दूसरे साधु का पात्र पसर जायगा, एवं 'सीसेण वा सीसे संघट्टिय पुव्वे भवई' जल्दबाजी में भिक्षा के लिये जाने से एक साधु का मस्तक दूसरे साधु के मस्तक से टकरा जायगा इसी तरह 'काएण वा काए संखोभिय पुत्वे भवइ' एक साधु के शरीर से दूसरे साधु का शरीर संघटित होगा, इस तरह परस्पर में शरीर के संक्षोभिल होने से क्रोध के कारण परस्पर कलह भी हो सकता है, इसी प्रकार 'दंडेण वा, मुट्ठिणा वा, लेलुणा वा, कवालेण वा अभिहयपुव्वे वा भवइ' एक साधु के दण्डा से अथवा मुष्टि से या लोष्ठ ढेला से या कपाल से कोई दूसरा साधु भिक्षा लेने से पहले ही अभिहत होगा, इसी तरह 'सीओदएण वा उस्सित्त पुव्ये भवई' शीतोदक-ठण्डापानी से अर्थात् सचित्त जल से कोई भाव साघु भिक्षा ग्रहण से पहले ही सिञ्चित हो जायगा इसी तरह 'रयसा वा परिघासिय पुव्वो भवई' धूलिसे-सचित रजः कण से कोई भाव साघु परिघर्षित-व्याप्त हो जायगा, इस तरह इतने ऊपरके कथनानुसोर संकीर्ण तथा 'सीसेण वा सीसे स'घट्टिय पुव्वे भवई' Salथा मिक्षा प्राप्त ४२पाथी साधुनु भरत भी साधुन। भरतनी सा2 23 री मेरा प्रमाणे 'कारण वा काए सखोभिय पुवे भवइ' से साधुन। शरीरनी साथ भी साधुनु शरी२ ८४२६ शे. या रीते मन्यान्य शरीना ४२वाथी ओधन ॥२0 ४ मीने ४ ५५५ छे. त! 'दंडेण वा मदिणा वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुव्वे वा भवई' से साधुना थी मगर મઠથી અથવા ઢેખલાથી અથવા કપાળથી કોઈ બીજા સાધુ ભિક્ષાલેતા પહેલા જ તાડિત थरी से शa 'सीओदएण वा उस्सित्तपुव्वे भवई' । पाथी मात् सथित्त पाशायी मा साधु Hanीया पसi छ। 0 २५५4। 'रयसा वा परिघासिय पुवो भवई' धूयी अर्थात् सथित्त २०१:४९४थी ४ मा साधु व्यात થશે આ રીતના ઉપરોક્ત કથનાનુસાર સંકીર્ણ દેશે બતાવીને હવે અવમ દેનું કથન श्री मायारासूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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