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________________ ७९८ आचारांगसूत्रे ग्रहम् अवगृह्णीयाद् वा प्रगृह्णीयाद् वा 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा ' से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः उपाश्रयं जानीयात् 'ससागारियं' ससा - गारिकम् - गृहस्थयुक्तम् 'सागणियं' साग्निकम् - अग्निसहितम् 'सोदयं' सोदकम् - शीतोदकइस प्रकार के उपाश्रय में रहने के लिये याचना नहीं करनी चाहिये इसी तरह के दूसरे उपाश्रय में भी रहने के लिये याचना नहीं करनी चाहिये यह बतलाते हैं- 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, से जं पुण उवस्सए उग्गहं जाणिजा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और मुनि महात्मा और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से बनेहुवे उपाश्रय में रहने के लिये अवग्रह के विषय में जान लेकि- 'खंधंसि वा' यह उपाश्रय खन्धे के ऊपर बनाया हुआ है या 'मंचं सिवा' मचान के ऊपर बनाया हुआ है या 'मालंसिवा' माला अर्थात् घरन मलित्थम के ऊपर बना हुवा है या 'पासाइए बा' प्रासाद महलों के ऊपर बनाया हुआ है या 'हम्मतलंसि वा' हर्म्यतल - अर्थात् धनिकों के कोठा के ऊपर बनाया हुआ है या 'अनयरे वा तहपगारे अंतलिक्खजाए' इसी प्रकार अन्य किसी भी स्थान विशेष में बनाया हुआ है तो इस प्रकार के खन्धे या मचान या माला वगैरह के ऊपर बनाये हुए अन्तरिक्ष स्थित-गगन स्थित उपाश्रय में 'जाब नो उग्गहं उग्गिहि ज्जया' यावत् रहने के लिये साधु को 'परिगिव्हिज्ज वा' एकवार या अनेक बार याचना नहीं करनी चाहिये क्योंकि इस प्रकार के अन्तरिक्ष स्थित खन्धे वगैरह के ऊपर बनाये हुए उपाश्रय में रहने से गिर जाने की संभावना से संयम की विराधना होगी, સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનુ પાલન કરવાવાળા સાધુઓએ આ પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં રહેવા માટે યાચના કરવી નહી. તથા આ પ્રકારના બીજા ઉપાશ્રયમાં રહેવા भाटै पशु यायना न वा भाटे सूत्रद्वार छे -' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोउत संयमशीन साधु ने साध्वी 'से जं पुण उवस्सए उग्गहं जाणिज्जा' ले वक्ष्यमाथ प्रहारथी उपाश्रयमां भवग्रह भाटे भाग से 'खंसि वा' उपाश्रय धरनावेज छे, अथवा मंचंसि वा' भाया उपर मनावे छे. अथवा मालसि वा' भेडा अर्थात् धरना भाजीया पर अथवा 'पासाइए वा' आसाहनी उपर मनावेस छे अथवा 'हम्मतलंसि बा' इयत अर्थात् धनवानाना मानानी उपर मनावेस छे, अथवा 'अण्णय वा तहपगारे' आ प्रहारना जीन हैं। पशु स्थान विशेषभां मनावेस छे. तो 'तहप्पगारे अंत लक्खजाए' भाषा प्रारना ध अगर भाग ५२ भांया ५२ जनावेस अद्धर रहेस उपाश्रयमां 'जाय नो उग्गहं उग्गिण्हिज्ज वा परिगिव्हिज्अ वा' यावत् निवास १२वा માટે સાધુએ અકવાર કે અનેકવાર યાચના કરવી નહી' કેમ કે-આવા પ્રકારના અદ્ધર રહેલ ધ વિગેરેની ઉપર બનાવવામાં આવેલ ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી પડિજવાની સભાવનાથી સથમની વિરાધના થાય છે. માટે તેવા ઉપાશ્રયમાં નિવાસ કરવા નહી”. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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