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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ.१ २.४ सप्तम अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ७९७ गिहिज्न वा' नो-अवग्रहम् अवगृहोयाद वा प्रगृहोयाद् वा-सकृद् वा असकृद् वा अन्तरिक्षस्थिते उपाश्रये अवग्रहं न गृह्णीयादित्यर्थः ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण उवस्सए उगई जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः उपाश्रये अवग्रहं जानीयात 'खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा' स्कन्धे वा मञ्च वा माले वा 'पासाइए वा हम्मतलंसि वा' प्रासादे वा हऱ्यातले वा 'अन्नयरे वा' अन्यतरस्मिन्-तदन्यस्मिन वा 'तहप्पगारे' तथाप्रकारे-तथाविधे स्कन्धमश्चाधुपरि निर्मिते 'अंतलिक्खजाए' अन्तरिक्षजातेअन्तरिक्षस्थिते उपाश्रये 'जाव नो उग्गहं उगिम्हिज्ज वा परिगिहिज्ज वा' यावत्-नो अव. वना रहने से संयम की विराधना हो सकती है इसलिये इस प्रकार के उपाश्रय में रहने के लिये याचना नहीं करनी चाहिये, इसी तरह के अन्य उपाश्रय में भी रहने के लिये याचना नहीं करना यह बतलाते हैं ‘से भिक्खुवा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सए उग्गहं जाणिज्जा'वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु मुनि महात्मा और भिक्षकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूपसे बने हुए उपाश्रय में रहने के लिये अवग्रह के बारे में जान ले कि 'कुडियंसि वा भित्तंसि वा' यह उपाश्रय कडय दिवाल के ऊपर बनाया हुआ है या भीत के ऊपर बनाया हुआ है या सिलं. सिवा' शिला पत्थर के ऊपर बनाया हुआ है या 'लेलुसि या मिट्टी के देले के ऊपर बनाया हुआ है ता 'तहप्पगारे अंतलिक्खजाए' इस प्रकार के अन्तरिक्ष जात आकाश में बनाये हुए कुड्यादि के ऊपर स्थापित उपाश्रय में रहने के लिये 'नो उग्गिहिज्ज वा परिगिहिज्ज वा' एक बार या अनेक बार अवग्रह की याचना नहीं करे क्योंकि इस प्रकार के अन्तरिक्ष जात में कुड्यादि के ऊपर स्थापित उपाश्रय में रहने से गिर जाने की संभावना रहती है और गिर जाने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम का पालन करने वाले साधु महात्माओं को પડી જવાની સંભાવના રહેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી આ રીતના ઉપશ્રયમાં રહેવા માટે યાચના કરવી નહીં. એ જ પ્રમાણે આ રીતના બીજા ઉપાશ્રયમાં પણ रहे। माटे यायना न ४२१विषे सू४२ ४९ छे.-'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा' त पूरित सयभशील साधु सने साती से जं पुण उपस्सए उन्गहं जाणिज्जा' मा वक्ष्यमा प्रारथी भनेता GIश्रयम मना विष १५ -मा पाश्रय 'कड़ियसिवा' यानी ५२ मनात छे. २५३१। 'भित्तंसि वा' मीतनी ५२ जनाव . । 'सिलसि वा' पत्थरन 6५२ अनाव छ. अथवा 'लोलुसि वा' भाटीना आना ७५२ मनविस छे. 'तहप्पगारे अंतलिक्खजाए' तt dan प्रारना २ २९सा यानी ७५२ मनापामा मावेस 3ाश्रयमा २७वा माटे 'नो उग्गहं उगिहिज्ज वा परिगिहिज्ज વા” એકવાર કે અનેકવાર યાચના કરવી નહીં કેમ કે આ પ્રકારના અદ્ધર રહેલ કુડયાદિની ઉપર બનાવેલ ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી પડી જવાની સંભાવના રહે છે. અને તેમ પડી જવાથી श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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