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________________ मर्मभकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ.१ सू. ५ सप्तम अवप्रहप्रतिमाध्ययननिरुपणम् ७९९ युक्तम् ‘स खुड्डपसुभत्तपाणं' स क्षुदपशु मक्तपानम्-क्षुदपशु-श्वान विडालादि-भक्तपानसहितम् उपाश्रयं यदि जानीयादिति पूर्वेणान्वयः तर्हि 'नो पण्णस्स निक्खमणपवेसाए' नो प्राज्ञस्य विवेकिनः साधोः निष्क्रमणप्रवेशाय-निर्गन्तुं प्रवेष्टुश्च 'जाव धम्माणुजोगविताए' यावद्-वाचनानुपृच्छापर्यावर्तन-धर्मानुयोगचिन्तायै तथाविधे उणपे अवग्रहो न कल्पते इत्याशये नाह-सेवं णचा' स-साधुः एवम्-उक्तरीत्या सागारिकादियुक्तम् उपाश्रय ज्ञात्वा 'तहप्पगारे उपस्सए' तथाप्रकारे-तथाविधे उपाश्रये 'सप्तागारिए' ससागारिके साग्निके __ अब फिर भी प्रकारान्तर से क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह का ही निरूपण करते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्षुणी वा से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु मुनि महात्मा और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान लें कि-यह उपाश्रय 'ससागारियं' ससागारिक है अर्थात् गृहस्थ लोग भी इस उपाश्रय में रहते हैं एवं यह उपाश्रय 'सागणियं साग्निक है-अग्नि से युक्त है अर्थात् अग्निकाय जीवों से सम्बद्ध है तथा 'सोदयं' सोदक है-शीतोदक से भी युक्त है याने अप्काय जीवों से भी सम्बद्ध है और यह उपाश्रय 'सखुडुपसु भत्तपाणं' छोटे छोटे प्राणी कुत्ते बिल्ली तथा सचित्त अन्न पानी वगैरह से भी युक्त है ऐसा जान लें तो इस प्रकार के सागारिक वगैरह से युक्त उपाश्रय में रहने के लिये 'नो पण्णस्स निक्खमणपवेसाए' प्राज्ञ-समझदार साधु महात्मा को निर्गमन और प्रवेश करने के लिये एवं 'जाव धम्माणुजोगचिंताए' यावत्-आगमादि धार्मिक पुस्तकों का वाचन के लिये एवं परस्पर पूछने के लिये तथा आवर्तन करने के लिये और धर्मानुयोग चिन्तन करने के लिये अवग्रह अर्थात याचना नहीं करनी चाहिये अर्थात् 'सेवं गच्चा तहप्पगारे शयी ४२-२थी । क्षेत्रा३५ द्रव्यावर नि३५५५ ४२ छ.-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वात सयमशीस साधु सने साकी ‘से जं पुण उवस्सयौं जाणिज्जा' ने पक्ष्यमा प्रा२यी पाश्रयने गये - 'ससागरिय' 20 SIश्रय सस२४ . मर्थातू गृहस्थ वा ५ मा पाश्रयमा (भानमा) २२ छ. तथा 'सागणियं' 10 उपाश्रय ममिथी युक्त है. मर्यात् AA14 वोथी युत छ तथा 'सोदय' । पायी ५५ युक्त छ मेट २५५४५ थी ५५ सच छ. 'सखुड्डपसुभत्तपोणं' तथा 21 ઉપાશ્રય નાના નાના પ્રાણિ જેવા કે કુતરા, બિલાડાથી તથા સચિત્ત અનાજ પાણી વિગેરેથી ५५ युत छ. तभ area aतो 'नो पण्णस्त निक्खमणपवेसाए' भावी शतना सा॥२४ વિગેરેથી યુક્ત ઉપ શ્રયમાં રહેવા માટે બુદ્ધિમાન સાધુએ નિર્ગમન અને પ્રવેશ કરવા भोट त 'जाव धम्माणुजोगचित्ताए' यावत् मागमा धा४ि अयाना पायन भाट તથા અન્ય પ્રચ્છા કરવા માટે તથા આવર્તન કરવા માટે તથા ધર્માનુગ ચિન્તન ४२१॥ भाट मर्थात यायना ४२वी नही' 'सेयं गच्चा' ७२५ श्राप विगैरेथा श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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