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________________ ७६६ आचारांगसूत्रे चेवणं संतियं पडिग्गहगतवचैव खलु गृहस्थस्य स्वाङ्गिक-परिभुक्तप्राय पतद्ग्रहम्-पात्रम् 'अंतो अंतेणं पडिले हिस्सामि' अन्तः अन्तेन-अन्तोपान्तेन प्रतिले खिष्यामि प्रत्युप्रेक्षणं करिष्यामि अन्तो बाह्यतः सर्वतो द्रक्ष्यामि, अन्यथा प्रतिलेखनां विनैव तवपात्रग्रहणे 'केवली बया-आयाणमेयं' केवली-भगवान् वीतरागः तीर्यकृद् ब्रूयात्-उक्तवान् यद्-आदानमेतत् कर्मबन्धकारणं भवति प्रतिले खनां विनय पात्रग्रहणम्, अन्यथा 'अंतो पडिग्गहगंसि' अन्त: पतद्ग्रहे-पात्राभ्यन्तरे 'पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा' प्राणिनो वा केचित् कृमिकीटादयः स्युः, बीनानि वा हरितानि वा सचित्तानि कानिचित् भवेयुः, तन्नयुक्तमित्याह'अह भिक्खूगं पुव्वोपदिहा पइण्णा' अथ च भिक्षूणां भिक्षुकोणाश्च कृते पूर्वोपदिष्टा प्रतिज्ञा वर्त ते 'जं पुयामेव पडिग्गहगं अंतो अंतेणं पडिले हित्ता पडिगाहिज्जा' यत् पूर्वमेव-पात्र ग्रहणात्प्रागेव पतद्ग्रहक-अन्तः अन्तेन-अन्तोपान्तेन प्रतिलिख्य प्रतिलेखनां कृत्वा प्रमार्जन आयुष्मन् ! हे भगिनि ! 'तुमंचेव णं संतियं पडिग्गहगं' तुम्हारे परिभुक्तप्राय इसपात्र को 'अंतो अंतेगं पडिलेहिस्सामि' अन्तोपान्त भाग से प्रतिलेखन करूंगा अर्थात् अन्दर बाहर सभी तरफ से अच्छी तरह देख लूंगा, क्योंकि प्रतिलेखन रूप प्रत्युपेक्षण नहीं करने पर 'केवली बूया' केवली-केवलज्ञानी वीतराग भगवान महावीर स्वामी ने कहा है कि-प्रतिलेखन करने के विना पात्र का ग्रहण करना आदान-अर्थात् कर्मबन्ध का कारण माना जाता है इसलिये अच्छी तरह देखभाल करके ही पात्र को ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा 'अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा' पात्र के अंदर कीटकृमि वगैरह जीवजंतु हो सकते हैं तथा 'बीयाणि वा, हरियाणि वा' अंकुरोत्पादक बीज एवं हरिततृण घास वगैरह सचित्त प्राणि भी हो सकते हैं और 'अह भिक्खूगं पुगेवदिट्ठा पइण्णा' साधु तथा साध्वो के लिये भगवान महावीर स्वामीने उपदेश दिया है कि 'जं पुत्वामेव पडिग्गहगं अंतो अंतेणं पडिलेहित्ता' पहले ही पात्रको अंदर बाहर प्रतिलेखन तभे परिसुस्त ४२॥ ॥ पात्रने 'अंतो अंतेणं पडिलेहिस्सामि' आद्यन्त पन्त लागना પ્રતિલેખના કરીશ અર્થાત્ અંદર અને બહાર બધી તરફથી તપાસી લઈશ. કેમ કેપ્રતિ मन ३५ प्रत्युपेश न ४२वाथी 'केवलीबूया आयाणमेय” वीत व ज्ञानी लगवान् મહાવીર સ્વામીએ કહ્યું છે કે-પ્રતિલેખન કર્યા વિના પાત્રનું ગ્રહણ કરવું એ આદાન અર્થાત કર્મબંધનું કારણ માનવામાં આવે છે, તેથી સારી રીતે અવકન કરીને જ पात्र हुए। ४२वा न. नहीं तर 'अंतो पडिग्गहगंसि' पानी म४२ 'पाणाणि वा' हीडी मोडविगेरे ७१४ श छे. तथा 'बीयाणि वा' त्या मी मया 'हरियाणि वा' elaian तृय घास विगेरे सयित्त प्राणी ५५ ७ श 'अह भिक्खूणं पुयोबदिद्वा पइण्णा' भने साधु सने की माटे मावान् महापार स्वाभीमे पडेलेया १ उपदेश यो छ है 'जं पुवामेव पडिग्गहग' अंतो अंतेणं पडिलेहित्ता' पडवेयी ४ पात्रने श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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