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________________ मर्मप्रकाशिका टीका तस्कंध २ उ. १ सू. १ षष्ठ' पात्रेषणाध्ययननिरूपणम् ७६५ 'सपाणं सभोयणं पडिग्गहर्ग दल इज्जा' सपानम् सभोजनं पतद्ग्रहम् - पात्रं यदि दद्यात् तर्हि 'तहप्पारं पडिग्गहगं अफासूयं जाव नो पडिगाहिज्जा' तथाप्रकारम् - तथाविधं सपान - भोजनसहितं तद्ग्रहम् - पात्रम्, अप्राकम् सचित्तं यावद् - अनेषणीयम् - आधा कर्मादिदोषयुक्तं मन्यमानः साधुन प्रतिगृह्णीयाद, 'सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहरं निसिरिज्जा' स्यात् - कदाचिद् यदि तस्मै साधवे परो - गृहस्थः उपनीय - गृहाद्बहिशनीय पतद्द्महम्पात्र निस्सृजेत् दद्यात् तर्हि 'से पुब्वामेव आलोइज्जा' स साधुः पूर्वमेव - पात्रग्रहणात्प्रागेव आलोचयेद् - विचारयेद्- 'आउसंतो ! भगिण !' आयुष्मन् ! आयुष्मति ! भगिनि ! 'तुमं रित्ता' बनाकर और उस बनाये हुए 'उबक्खडिता सपाणं सभोयणं पडिमहं दलज्जा' अशनादि चर्तुविध आहारजात से पात्र को परिपूर्ण करके दे तो उस प्रकार के 'तहपगारं पडिग्गहगं दलइज्जा' अशनादि चतुर्विध आहारजात से पात्र को परिपूर्ण करके ही देतो 'तहप्पारं पडिग्गहं' उस प्रकारके अशनादि चतु विंध आहारजात से परिपूर्ण पात्र को 'अफासुयं जाव' अप्रासुक सचित्त तथा अनेषणीय-आधाकर्मादि दोषों से युक्त समझकर 'नो पडिगाहिज्जा' साधु नहीं ग्रहण करे क्यों कि उत्तरीति से साधु के निमित्त अशनादि चतुर्विध आहारजात को पका कर या पकवा कर उस पकाये हुए अशनादि से पात्र को परिपूर्ण करके देने पर यदि साधु ग्रहण करे तो संयम की विराधना होगी इसलिये संयमपालनार्थ साधु को इस प्रकार के अशनादि से परिपूर्ण पात्र को नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि संयम का पालन करना ही साधु का परम कर्तव्य है, 'सिया से परो उबणित्ता पहिग्गहगं निसिरिज्जा' कदाचित् यदि पर- गृहस्थ श्रावक उस साधु को घर से बाहर लाकर पात्र दे तो 'से पुन्वामेव आलोइज्जा' वह साधु पात्र को लेने से पहले ही विचार कर कहे कि 'आउसंतो ! भगिणि' हे हं दलइज्जा' न्मने से विविध प्रहारथी मनावेसा अशनाहि यतुर्विध आहार लतथी यात्रने लरीने आये तो 'तहत्पारं पडिग्गहूँ' मे अहारना अशनाहि यतुर्विध आहार लतथी लरेखा पात्र 'अफ जाव नो पडिगाहिज्जा' अप्रासु सचित्त तथा अनेषणीय - साधार्माहि દોષાવાળા સમજીને સાધુએ ગ્રહણ કરવા નહીં, કેમ કે ઉક્ત પ્રકારથી સાધુના નિમિત્તે અશાદિ ચતુર્વિધ આહાર જાતને મનાવીને અથવા બનાવરાવીને એ બનાવેલા અશનાદિથીપાત્રને ભરીને દેવાથી જો સાધુ અને સાધ્વી ગ્રહણ કરે તે સ ́યમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનુ પાલન કરવા માટે સાધુએ આવા પ્રકારના અશનાદિથી ભરેલા પાત્રને ગ્રહણ १२वा नहीं द्वैभ } संयमनु यासन वुमेन साधुनु परम उर्तव्य छे. ' सिया से परो णित्ता पडिग्गह' निसिरिज्जा' हा गृहस्थ श्राव से साधुने धरनी अड्डार लावीने यत्र तो 'से पुव्वामेव आलोइज्जा' ते साधुखे पात्र होता पहेला ४ विचार ने 'डेवु' ! 'आउसंतो ! भगिणि !' हे आयुष्भन् ! हे मडेन! 'तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहूं' શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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