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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. १ सू० १ चतुर्थ' भाषाजातमध्ययननिरूपणम् ६०३ मुपदेश इत्याह-'अणुवीइ निद्वाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा' अनुविचिन्त्य-साधुः सम्यग् विचार्य अतिशयेन श्रुतोपदेशेन वा सम्यग्निश्चित्य प्रयोजनवशाद् निष्ठाभाषी सावधारणभाषी सन् संयतः समित्या-भाषा समित्या समत्वेन वा रागद्वेषराहित्यलक्षणेन वक्ष्यमाणस्वरूपषोडशवचन विधिज्ञो भाषा भाषेत इतिभावः, अथ यादृशीं भाषां भाषेत तां पोडशवचनविधिगतां भाषां दर्शयनाइ-'तं जहा-एगवयणं १ दुवयणं २ बहुवयणं ३ तद्यथाएकवचनम् द्विवचनम्, बहुवचनम्, एतावता यत्र एकवचनस्य प्रयोगउचितः, यत्र वा द्वि वचनस्य यत्र वा बहुवचनस्य प्रयोगो योग्यस्तत्र यथायथम् एकवचनादिकं व्याकरणसरण्या बुद्ध्वा प्रयुञ्जोत साधुरिति फलितम् । एकान्त वाक्य नहीं बोलना चाहिये अर्थात् साधु और साध्वी 'अणुवीइ निट्ठा भासी' अच्छी तरह से विचार कर के ही श्रुत उपदेश के अनुसार निश्चित रूप से प्रयोजन वश निष्ठा पूर्वक भाषा का प्रयोग करे एवं 'समियाए संजए भास भासिज्जा' संयमशील होकर ही भाषा समिति से युक्त होकर समता पूर्वक राग द्वेष से रहित होकर वक्ष्यमाण स्वरूप सोलह प्रकारके वचन विधि का प्रयोग करे। अब जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे उस सोलह वचन विधिगत भाषा को दिखलाते हुए कहते हैं 'तं जहा-एगवयणं १, दुवयणं २, बहुवयण ३' यथा-एकवचन, द्विवचन बहुवचन इत्यादि, अर्थातू जहां पर एक वचन का प्रयोग करना उचित है या द्विवचन का प्रयोग करना उचित है तथा जहां पर बहुवचन का प्रयोग करना ही उचित है वहां पर यथाक्रम एकवच. नादि का प्रयोग व्याकरण की सरणि से समझ कर साधु को करना चाहिये, वीइ निद्राभासी' सारी शते विया२ ४शन १ श्रुत ७५हेश अनुसार निश्चित शत नवीन प्रयोशन पशात नि५४ पूर्व भाषामा प्रयो॥ ४२३। 'समियाए संजए भासं भासिज्जा' સંયમશીલ થઈને જ ભાષા સમિથી યુક્ત રહીને સમતા પૂર્વક જ રાગદ્વેષ રહિત થઈને આગળ કહેવાનાર સોળ પ્રકારની વચન વિધિને જાણીને ભાષાને પ્રયોગ કરે. હવે ભાષાને પ્રગટ કરવાની સેળ પ્રકારની વચન વિધિ બતાવવામાં આવે છેजहा' म 'एगवयण' क्यन । 'दुवयण' विषयन २ बहुवयण' मयन 3 'इत्थिवयणं' स्त्रीवयन ४ 'पुरिसवयणं' ५३५१५। ५ 'नपुसगवयण' न सवयन 'अज्झत्थवयणं' मध्यात्म१यन ७ 'उवणीयवयणं' प्रशसाम४यन ८, 'अवणीयवयणं' नाम४यन ६, 'उत्रणीय अवणीयवयणं' x प्रशसात्म भने ४४ निम वयन १० तथा 'अवणीय उवणीयवयणं' 8 निहात्म४ भने ४४४ प्रशसभ क्यन ११ 'तीयवयणं' मतीतवयन १२ ‘पडुप्पण्णवयणं' पत मानवियन १३ 'अणागयवयणं' सविण्या सभी क्यन १४ 'पच्चक्खवयणं' प्रत्यक्षवयन १५ 'परुक्खवयणं' ५२।क्षयन १६ यां એકવચન, દ્વિવચન કે બહુવચનને પ્રયોગ કરવાને ગ્ય હોય ત્યાં યથાક્રમ એકવચનાદિને श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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