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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० २० तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम् ५४९ गच्छन् 'अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया' अन्तरा-मार्गमध्ये तस्य साधोः जङ्घा संतार्थम् जङ्घया संतरणयोग्यम् जङ्घाप्रमाणे यदि उदकं स्यात् तर्हि 'से पुव्वामेव ससीसोवरियं कार्य' स साधुः पूर्वमेव उदकसंतरणात्प्रागेव सशीर्षो परिक्रम् शीर्षसहितम् उपरितनम् कायम् 'पाए य पमज्जिज्जा' पादश्च प्रमार्जयेद् 'पमज्जित्ता एगं पायं जले किच्चा' प्रमाज्य एकं पादं जले कृत्वा - संस्थाप्य ' एगं पायं थले किच्च । ' एकं पादं स्थले कृत्वा 'तओ संजयामेव' ततः तदनन्तरम् संयतमेव - यतना पूर्वकमेव ' उदगंसि आहारियं रीएज्जा' उदके यथाssर्यम् - ईर्यासमितिविषये आचार्यादेशानुसारम् रयेत गच्छेत्, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' भिक्षु of भिक्षुकी वा 'आहारियं रीयमाणे' यथाऽऽर्यम् - आचार्यादेशानुसारम् रोयमाणः गच्छन् 'नो हत्थेण हत्थं पाएण पायं' नो हस्तेन हस्तम् पादेन पादम् 'जाव अणासायमाणे' यावत् कायेन कायम् आसादयेत् - संस्पृशेत, स साधुः अनासादनया अनासादयन् - असंस्पृशन् रिमे उगे सिया' उस साधु को मध्य में जंघा से पार करने योग्य अर्थात् जंघा भर पानी हो तो - 'से पुण्यामेव ससीसोवरियं कार्यं' उस जंधे भर पानी को पार करने से पहले ही मस्तक सहित ऊपर भागके काय शरीर को और 'पाए य पमज्जिज्जा' पैर को प्रमार्जित करे और - 'पमज्जित्ता' सशिर ऊपर भाग के काय तथा पैर को प्रमार्जित करके - 'एगं पायं जले किज्जा' एक पैर को जल में और 'एगं पायं थले किच्चा' एक पादको स्थल पर करके 'तओ संजयामेव उदगंसि आहारियं रीएज्जा' उसके बाद संयम पूर्वक ही यथाचार्य अर्थात् इर्यासमिति के विषय में आचार्य के उपदेश के अनुसार ही गमन करे और 'से भिक्खू चा भिक्खूणी वा, आहारियं रीयमाणे णो हत्थेणं हृत्थं' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी आचार्य के उपदेशानुसारही गमन करते हुए 'हत्थेणं हत्थं' हाथ से हाथ को 'पाएण पायं' पैर से पैर को 'जाव अणासायमाणे' एवं यावत् काय से काय को संस्पर्श नहीं करे और वह साधु अनासादन से अर्थात् असंस्पर्श से हाथ पैर એ સાધુને માર્ગોમાં જ ઘાથી પાર કરવા લાયક અત્યંત્ જાંઘ પન્ન પાણી હાય તે ये अंधापुर पालीने पार १२वा भाटे 'से पुव्वामेव' पडेल 'ससीसोवरिय कार्य पाएय 'मज्जिज्जा' भस्त सहित उपरना लागना शरीर नुं अने गर्नु प्रमान ने 'पमज्जित्ता' समस्त उपरना लागना शरीर भने गर्नु प्रभान ने 'ए पाय जंले किच्चा' ये यगने सभां राणीने तथा 'एंगे पाय थले किच्चा' थे पगने भीन पर शमी 'तओ संजयामेव उदगंसि आहारियं रीएज्जा' ते पछी संयम पूर्व જ યથાચા અર્થાત્ ય સમિતિના સબંધમાં આચાર્યાંના ઉપદેશાનુસાર જ ગમન ' ने 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोत संयमशील साधु साध्वी 'अहारियं रीयमाणे' आयार्यना उपदेश प्रमाणे गमन उरतां 'णो हत्थेण हत्थं पाएण पाय" हाथ पडे हाथों यश वडे पगले भने 'जाव अणासायमाणे' यावत् शरीरथी शरीरा શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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