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________________ ५५० आचारांगसूत्रे 'त संजयामेव ' ततः तदनन्तरम् संयतमेव - यतना पूर्वकमेव 'जंघासंतारिमे उदए' जंघा - संतार्यमुदकम् 'आहारियं रीपज्जा' यथाऽऽर्यम् - आचार्या देशा नुसारम् - ईर्यासमितौ यथा आचायेणोक्तं तथैव रीयेत - गच्छेत्, 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु र्वा भिक्षुकी वा 'जंघा संतारिमे उदय' जंधा संतार्यम् जंघया संतरणयोग्यम् उदकम् 'आहारियं रीयमाणे' यथाऽऽर्यम् आचार्यादेशानुसारं रीयमाणः गच्छन् 'नौ सायावडियाए' नो साताप्रतिपच्या - मुखशान्तिप्राप्त्यर्थम् 'नो परिदाह पडियाए' नो परिदाहप्रतिपस्या - परितापशान्त्यर्थम् ' महइ महालयंसि उदयंसि' महति महालये अत्यन्तागाधे उदके 'कार्य विउसिज्जा' कार्य व्युत्सृजेत्, प्रवेशयेत् नो निमज्जयेदित्यर्थः, अपितु 'तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदर' ततः तदनन्तरम् संयतमेव यतनापूर्वकमेव धातार्थम् उदकम् 'आहारियं रीएज्जा' यथाऽऽर्यम् - आचार्यादेशानुसारम् रीयेत - गच्छेत्, 'अह पुण एवं जाणिज्जा' अथ यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात्काय वगैरह को हाथ पैर कायादि से संस्पर्श नहीं करते हुए 'तओ संजयामेव' उसके बाद संयमपूर्वक ही 'जंघासंतारिमे उदए' जंघा से तैरने योग्य पानीको 'अहारियं रीएजा' आचार्य के आदेशानुसार ही पार करें गमन करे अर्थात् समिति में आचार्यने जैसा कहा है इसी तरह जाना चाहिये 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, जंघा संतारिमें उदए आहारियं रीयमाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु और भिक्षुकी जंघा से तैरने योग्य उदक को आचार्य के उपदेशानुसार ही जाते हुए 'णो साधावडियाए' सुख शांति प्राप्ति के लिये और ' णो परिदाहवडियाए' परिताप शान्ति के लिये भी 'महई महालयंसि उदयंसि कार्य विउसिज्जा' अत्यंत अगाध पानी में कायको प्रवेश नहीं करावे अर्थात् अगाध जलमें कभी भी नहीं निमज्जन करे अपितु 'तओ संजयामेव' उस के बाद संयमपूर्वक ही 'जंघासंतारिमे उदगे' जंघा से पार करने योग्य उदक में 'आहारियं रीएज्जा' आचार्यके उपदेशानुसार गमन करने का विचार करें अर्थात् जंघा भर पानी को तैर कर चले 'अह पुण एवं સ્પર્શી કરવા નહીં. અને તે સાધુ અનાસાદનાથી અર્થાત્ હાથ પગ અને કાયાદિથી હાય या मने याहिना स्पर्शर्या पिना 'तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए संयभ पूर्व अधथी तरवा येग्य पाणीने 'अहारियं रीएज्जा' आयार्यना उपदेश प्रभारी પાર કરે. અર્થાત્ ઈર્ષ્યા સક્ષિતિમાં આચાર્ય જે પ્રમાણે કહ્યું છે એજ પ્રમાણે તે જલને या २' 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु मने साध्वी 'जंघा संतरिमे उद' धाथी तरखाने योग्य पाणीने 'आहारियं रीयमाणे' गायार्यना उपदेश प्रमाणे ४ गमन ४२तां 'जो साया वडियाए' सुख शांतिनी प्राप्ति भाटे भने 'णो परिवाह घडियाए' परितापनी शांति भाटे या 'महइमहालयंसि उदय सि' अत्यंत अगाध यीभां 'कायं विउसिज्जा' शरीरने प्रवेशावे नहीं अर्थात् अगाध मां पशु समये प्रवेश नहीं परंतु 'तओ संजयामेव' प्रवेश अर्याछी संयम पूर्व ४ 'जंघा संतारिमे उदगे' लधथी पार ४२वाने योग्य पाणीमा 'आहारियं रीरज्जा' मायार्यना उपदेशानुसार શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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