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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतकंस्घ २ उ. १ रु. १० तृतीय ईर्याध्ययननिरूपणम् ५१९ न्तरं गच्छन् 'अंतरा से विहं सिया' अन्तरा-गमनमार्गमध्ये तस्य साधोः विहम्-अटवी स्यात्-भवेत, अथच 'से जं पुण विहं जाणिज्जा' स साधुः यत्-यदि पुनः वक्ष्यमाणस्वरूप विहम् अटवीं जानीयात्-एगाहेण वा' एकाहेन वा एकदिनेन वा, 'दुआहेण वा' द्वयन या 'तिआहेण वा व्यहेन वा दिनत्रयेण वा 'चउ आहेण वा' चतुरहेन वा दिनचतुष्टयेन वा अत्र 'दुआहेण पा' इत्यादौ दुअहेन इत्येववक्तु मुचितं दिवसार्थक आह शब्दाभावात् तथापि अत्र आर्षत्वान्नदोष? 'पंचाहेण वा' पञ्चाहेन वा दिनपञ्चकेन वा 'पाउणिज्ज वा' प्रापणीयं वा-उल्लड्डनीयं वा स्यात् 'णो पाउणिज्ज वा' नो प्रापणीयं वा नया उल्लङ्घनीयं स्यात् पश्चमदिनेनापिताम् अटवीम् उल्लंघ्य अग्रे गन्तुं शक्य ते नवेत्येवं संशये सति हापगारं विह' तथा प्रकारम् उपर्युक्तरीत्या एकाहादि पञ्चाहेनापि उल्लङ्घनीयं स्याद नवा उल्लं. धनीयं स्पादित्येवं संदिग्धं विहम् विपिनम् 'अणेगाहगमणिज्ज' अनेकाहगमनीयम्-अनेकदिनैः समुल्लंध्य गमनयोग्यं विपिनम् 'सइलाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहि' सति लाढे विहाराय संस्तरमाणेषु जनपदेषु विहारार्थ गमनयोग्येषु जनपदेषु सत्सु णो जाव गमगाए' नो उस साधुको-'अंतरा से विहं सिया' यदि गमन के मध्य मार्ग में विह-बीहर वन -जंगल आ जाय और ‘से जं पुण विहं जाणिज्जा' उस वीहर बनको यदि साधु और साध्वी ऐसा समझ ले कि यह इतना बडा वीहरवन है कि 'एगाहेण वा एक दिन में या 'दुआहेणवा' दो दिन में या ' तिआहेण वा तीन दिनों में या 'चउअहेण वा' चार दिन में अथवा पंचाहेण चा पाउणिज्ज वा' पांच दिनों में पार किया जा सकता है या 'णो पाउणिज वा' नहीं भी इतने दिनों में पार किया जा सकता है ऐसा जान ले या पता लगाले तो 'तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिज्ज' उस प्रकार के पांच दिनों तक में पार किये जासकते या नहीं इस प्रकार के संशयास्पद होने के कारण अनेक दिनों में गमन करने योग्य इस वीह जंगल मध्य होकर जब की 'सई लाढे विहाराए संथरमाणेहि जाणवएहिं दूसरे जनपदों के विहार के लिये प्रस्तुत होने पर भी अर्थात् अन्य जनपदों को विहार करने योग्य होने पर 'णो जाय गमणाए' उस अत्यंत वीहर जंगल के बीच में से चलकर एक ग्राम गामाणुगाम दूइज्जमाणे २४ मथी भी आम १४di ये साधुन 'अंतरा' भागमा से विहंसिया' A e 21वीय तथा 'से जं पुण विहं जाणिज्जा' से पनने ने साधु भने साक्षी मे समरे 'एगाहेण वा दुआहेण वा' या मोटु पन मेहसभा 'तिआहेण वा चउअहेण वा' त्र हसमा या२ हिसमा २५था 'पंचाहेण वो' पाय यसोमा 'पाउणिज्ज वा' पा२ ४री शाशे अथवा 'णा पाउणिज्ज वा' भेटता हिपसीमा पार न पY 30 शय तेम समपामा सावे तो 'तह पगारं विहं अणेगाहगमणिज्ज' 2 शतना अर्थात् पाय ६५स सुधीमा ५९] पा२ १३ १४४य १२ न કરી શકાય એવા શંકાસ્પદ હોવાથી અનેક દિવસે માં ગમન એગ્ય એ જંગલની મધ્યभांधी 'सइलाढे विहारोए' अन्य प्रशायी विडार १२या योग्य डाय त 'संथरमाणेहि श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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