SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५८ ___ आचारांगसूत्रे गृह्णीयात्, शिथिलबन्धसंस्तारकग्रहणे तद्भङ्गेसति पुननिर्मापणजन्यबहुविधायाससंभवेन संयमविराधना स्यात् ।।मू० ५१॥ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारग जाणिज्जा, अप्पंडं जाव संताणगं लहुयं पाडिहारियं अहाबद्धं तहप्पगारं संथारयं जाय लाभे संते पडिगाहिजा ॥सू० ५२॥ ___टीका-"अथ संस्तारकविशेष ग्रहीतुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा स भिक्षुवा भिक्षुकी वा 'से जं पुण संथारगं जाणिज्जा' स संयमवान् मिक्षुः यत् पुनः-यदि यावद् वक्ष्यमाणस्वरूपं संस्तारकम् फलकपट्टादिकम् जानीयात् तद्यथा 'अप्पडं जाव संताणगं' अल्पाण्डम्-अण्डरहितम् यावत् प्राणिजीवजन्तु उत्तिङ्गपनकलूतातन्तुजालसन्तानरहितम् 'लहुयं पाडिहारियं' लघुकम् लघुत्वयुक्तम् गुरुत्वरहितम् प्रतिहारकम्-प्रत्यर्पणयोग्यता क्योंकि शिथिल ढीले कमजोर बंधन वाले फलकादि संस्तारक को लेने से उस को तुरत ठूट जाने से दुवारा बनाने में बहुत आयास कष्ट होगा इसलिये संयम की विराधना होगी इसलिये शिथिल बंधनवाले फलकादि संस्तारक को साधु और साध्वी नहीं ग्रहण करें अन्यथा संयम विराधना होगी।॥५१॥ अब संस्तारक विशेष को लेने के लिये बतलाते हैं टीकार्थ-'से भिक्खू वा भिक्खूणी बा, से ज पुण संथारएं एवं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक और भिक्षुकी यदि 'एवं' ऐसा वक्ष्यमाण रूप से संस्तारक फलक पाट वगैरह को जान ले या देख ले कि यह संस्तारक 'अप्पंडं जाय संता. णगं' अल्प अण्डवाला अर्थात् अण्डों से रहित है एवं यावत् प्राणी-बीज हरित उत्तिङ्ग, पनक उदक मिश्रित मिटि मकरे का जाल सन्तान परम्परा से भी वर्जित भानात 'लाभे संते णो पडिग्गाहिज्जा' प्राप्त थाय तो ५४ साधु, सपा से नही કેમ કે ઢીલા કમજોર બંધનવાળા ફલકાદિ સંસતારકને લેવાથી તે તરત ભાંગી તૂટિ જવાથી ફરી મેળવવા આયાસ જનક કષ્ટ થાય છે. તેથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તે માટે શિથિલ બંધનવાળા ફલકાદિ સંતારક વિગેરેને સાધુ કે સાધ્વીએ ગ્રહણ કરવાં નહી. કારણ કે તે લેવાથી સંયમ વિરાધના થાય છે. ! સૂ. ૫૧ હવે કેવા સંસ્મારક વિગેરે લેવા તે વિષે કથન કરે છે. At- से भिक्य वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वरित संयमशीस साधु भने साया से जं पुण संथारगं एवं जाणिज्जा' ने 20 ५६यमा प्रा२यी सस्ता२४ ३८४ ५८ पोरेन ज नस मा सस्ता२४ 'अप्पंडं जाव संतोणगं' ५५is मर्थात् डा विनाना છે તથા યાવત પ્રાણી, બી અને લીલા ઘાસ પાન વિગેરે વિનાના છે તથા ઉનિંગ પાક मन मिश्रित भाटी , शणीयानी त ५२५२।थी ५४ २हित छ तथा 'लहुय' ९८५ ५५ छ. अर्थात खि लारे नथी तथा 'पाडिहारिय' भतिहा२४ मात श्री. ॥॥२॥ सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy