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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ३ सू. ५१ शय्येषणाध्ययननिरूपणम् ४५७ माणस्वरूपं संस्तारकं फलकादिकं जानीयात् तद्यथा 'अप्पंडं जाय संताणगं' अल्पाण्डम्अण्डरहितम् यावत्-उत्तिङ्गपनकलूतातन्तुजालरूपसंन्तानरहितम् 'लहुयं पाडिहारियं लघु. कम-गुरुत्वरहितम् प्रतिहारकम् प्रत्यर्पणयोग्यता सहितम् किन्तु 'णो अहापद्धं नो यथावद्धम् पूर्ववद्वन्धनयुक्तम् शिथिलबन्धं तदस्तीति ज्ञात्वा 'तहप्पगारं संथारय' तथाप्रकारम् चन्धनशैथिल्ययुक्तम् संस्तारकम् फलकादिकम् भङ्गादिदोषसंभवेन क्लेशकारित्वात् संयमविराधकतया लाभे संते' लाभे सति, लाभे सत्यपि 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रति टीकार्थ-से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से जं पुण संथारगं एवं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक संयमशील जैन साधु और भिक्षुकी जैन साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से संस्तारक शय्या पाट फलक वगैरह को जान ले या देख ले कि यह संस्तारक पाट वगैरह 'अप्पंडं जाव संताणगं' अल्पाण्ड अर्थात अंण्डों से रहित हैं एवं अल्पप्राणी प्राणीयों से वर्जित है एवं अल्पबीज बीजों से भी रहित है एवं अल्पहरित हरे भरे घास पत्तों से भी वर्जित है तथा अल्प उत्तिंग, ऊल रूप सूक्ष्म जीव जन्तुओं से भी रहित है तथा अल्पपनकफनवा वगैरह कीटपतंग वगैरह प्राणियों से भी वर्जित है और 'लहुयं लघु और हलका भी है तथा 'पाडिहारियं' प्रातिहारक-प्रत्यर्पण करने योग्य भी है तथा भारी भी नहीं है किन्तु णो अहाबद्धं' यथाबद्ध पूर्ववत् मजबूत बंधन वाला नहीं है अर्थात् ढीलाबंधन वाला है इसलिये शीघ्र ही टूटफूट जायेगा ऐसा समझकर 'तहप्पगारं संथारयं' इस प्रकार के शिथिल बंधन वाले संस्तारक फलक पाट चौकी वगैरह संस्तारक शय्या को टने-फूटने के डर से क्लेश कारी सझकर संयम विराधना होने से 'लाभे संते णो पडिगाहिज्जा' मिलने पर भी साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये 1-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयमशीस साधु सने सपा से जं पुण संथारय एवं जाणिज्जा' मा ५३यमा ४२थी सरता२४ शय्या पाट ३४ विगैरेने angी से हेमा से, सत।२४ पाट विगेरे 'अप्पंडं जाव' ५५isध्या ५१२ना छे. व यावत् 'संताणगं' २५६५ प्राणी अर्थात् प्राणियो पाना छे. તથા લીલા ઘાસ પાના વિનાના છે. તથા અલ્પ ઉસિંગ ફલરૂપ સૂમ જીવ જંતુઓ વિનાના છે તથા અલ્પ પનક ફનગા વિગેરે કીડા પતંગ વિગેરે પ્રાણિથી પણ રહિત છે.તથા પાણિથી મળેલ માટી તથા કળીયાની જાળ પરંપરથી પણ રહિત છે. તથા 'लहुय' ७३४ ५७५ छ भने 'पाडिहारिय” पाठि २४ मेट है पाछ। २॥५१॥ योग्य पाए। छ. तथा लारे यहा२ ५ नथी परंतु णो अहाबद्धं' भभूत ५ धनवाण नथा અર્થાત્ શિથિલ બંધનવાળા છે. તેથી જદિ તુટિ કૂટિ જાય તેવા છે તેમ જાણીને “નંદप्पगार संथारगं जाव' ते प्रारे ढीसधना सता२४ ५५५ पाट यी विगरे શા સંતારકને તક્યા ભાંગવાના ડરથી કલેશ જનક સમજીને તથા સંયમ વિરાધક श्रीमाया सूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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