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________________ ४५६ आचारांगसूत्रे स्वीकाररहितं तदस्ति इति ज्ञात्वा 'तहप्पगारं सेज्जासंथारगं' तथाप्रकारकम्-प्रतिहरण. योग्यतारहितम् शय्यासंस्तारकम्-फलकादिकं 'लाभे संते' लाभे सति लामे सत्यपि 'णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात् प्रत्यर्पणयोग्यता रहितस्य फलकादि संस्तारकस्य संरक्षणप्रयुक्तक्लेशाधिक्यसंभवेन संयमविराधना स्यात् ॥ ० ५०॥ मूलम्-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाय संताणगं लहुयं पडिहारियं णो अहाबद्धं तहप्पगारं संथारयं जाय लाभे संते णो पडिगाहिज्जा ।सू० ५१॥ छाया-स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा स यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् अल्पाण्डं यावत् संतानकं लघुकं प्रतिहारकं नो यथाबद्धं तथाप्रकारं संस्तारकं यावत् लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयात् ।।सू० ५१॥ टीका-'पुनरपि प्रकारान्तरेण शिथिलगन्धनं संस्तारकं निषेधितुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुगी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण संयारगे जाणिज्जा' स यत् पुनः वक्ष्य'लहुयं' लघुक अत्यंत हलका भी बिलकुल ही भारी तथा विशाल भी नहीं हैं किन्तु 'अपाडिहारियं तहप्पगारं सेज्जासंथारय' अप्रतिहार्य बाद में प्रत्यर्पण वापस देने लायक या स्वीकार करने लायक भी नहीं है ऐसा जानकर या देखकर 'तहप्पगारं' इस प्रकार के अग्रातिहार्य संस्तारक शय्या को 'लाभे संते वि णो पडि. गाहिज्जा' मिलने पर भी साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये क्योंकि उपयोग करने के बाद वापस देने लेने लायक नहीं होने से इस के शय्या संस्तारक फलक पाट चौकी वगैरह का संरक्षण प्रयुक्त अधिक कलेशादि की संभावना होने के कारण संयम विराधना होगी इसीलिये उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ ५० ॥ अब दूसरे ढंग से कमजोर बंधन वाले संस्तारक पाट वगैरह का निषेधक करते हैंसहित छ. तथा ४२जियानी onu ५२५२राथी ५१ २हित छ, तथा 'लहुयं' सत्यत इस छ, तम विश-बहु मोटु ५५ नयी ५२ तु 'अपाडिहारिय' मातिडायमेट शथी पाछु माया माय स्थीर साय: ५५ नथी तेम तीन 8 'तहप्पगारं सेज्जासंथारय' मा प्रारना मप्रतिहार्य शय्या संता२४ 'लाभे संते वि णो पडिगाहिज्जा' प्राप्त थाय ते ५९ साधु ? सावाये यह ४२१॥ नही. म 3-3५योगमा લીધા પછી પાછા આપવા કે લેવા લાયક ન હોવાથી આવા પ્રકારના શયા સંસ્તારક ફલક પાટ ચેકી વિગેરેનું રક્ષણ જનક કલેશાદિની સંભાવના હોવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી તેવા સંસ્મારકાદિ ગ્રહણ કરવા નહીં. સૂ. ૫૦ છે હવે કમર બંધનવાળા સસ્તારક પાટ વિગેરે લેવાનો નિષેધ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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